बुधवार, 31 मई 2017

मई माह के श्रेष्ठ हाइकु

मई माह के श्रेष्ठ हाइकु

पहली मई 
माथे पर पसीना 
श्रम दिवस 
       -जितेन्द्र वर्मा
श्वेद तरल
श्रम है अविरल
नव निर्माण
       -सुशील शर्मा
विकास रथ
मुझसे गुज़रता
हूँ अग्नि पथ
       -सुशील शर्मा
नींद ले उडी
सपनों की पतंग
भोर ने काटी
       -नरेन्द्र श्रीवास्तव
नींद बागबां
सपनों के फूलों से
प्रीत महके
       -नरेन्द्र श्रीवास्तव
बेचे सपने
सपनों का व्यापारी
ये मेरा मन
       -जितेन्द्र वर्मा
वही कहानी
फिर टूटे सपने
वर्षों पुरानी
      -विष्णु प्रिय पाठक
जीवन तेरा
सिल पर निशान
हाइकु जैसा
      -प्रीती दक्ष
जीता लड़ाई
ज़िंदगी हार कर
वीर सिपाही
      -राजीव गोयल
ज़िंदगी स्वप्न
सच मान कर जी
वाह, ज़िंदगी
        -जितेन्द्र वर्मा
गोधूलि बेला
होने लगा शिथिल
सूरजमुखी
       -राजीव गोयल
रस्म नापाक
भविष्य हुआ ख़ाक
तीन तलाक
      -डा. रंजना वर्मा
झड़ा पलाश
सज गई है सेज
पेड़ों के नीचे
      -राजीव गोयल
व्रती विहग
धूप जाने के बाद
दाना चुगते
      -नरेन्द्र श्रीवास्तव
नींद से जगी
अलसाई सी कली
स्वप्न महका
      -सुशील शर्मा
स्वप्न की नाव
नींद की नदी पर
तैरती रही
       -सुशील शर्मा
माडर्न आर्ट
विभा सुलझा रही
वर्ग पहेली
       -विभा श्रीवास्तव
कहा मौन ने
अहसास ने सुना
दर्द मन का
      -प्रियंका वाजपेयी
रूप यौवना
दर्पण सखी सदा
नहीं परदा
      रमेश कुमार सोनी
पीड़ा किसी की
असह्य थी, मगर
खामोश रही
       -प्रियंका वाजपेयी
दिल दर्पण
दिखलाए हमेशा
बिम्ब अपना
       -कैलाश कल्ला
और से नहीं
अपने से ही लड़ें
पाएं विजय
       -जितेन्द्र वर्मा
माँ मेरी मित्र
गंगा जैसी पवित्र
ईश्वर चित्र
       -सुशील शर्मा
पी रहा हूँ मैं
घोल कर शराब
तनहा रात
      -राजीव गोयल
हिंसा अहिंसा
रास्ते दो लड़ने के
कोई तो चुनें
      -पीयूषा
अहिंसा प्यार
साधे हित सभी का
सत्य की राह
      -पीयूषा
स्थिर हो चित्त
भटकते सिद्धार्थ
बैठे तो बुद्ध
       -सुशील शर्मा
सेल्फी का दौर
हर कोई तनहा
कौन अपना
      -अमन चांदपुरी
जाते ही जान
छाया भी छोड़े साथ
काहे का मान
      -अमन चांदपुरी
भीतर ज्वाला
बाहर हिमगिर
ऐसी है धरा
       -प्रियंका वाजपेयी
नन्हा बालक
थोड़ी सी झरी हंसी
मानो हाइकु
       (संपादित)  -तुकाराम खिल्लारे
संचित अन्न
गोदाम में ही सड़ा
जनता भूखी
       - जितेन्द्र वर्मा
वैसाखी धूप
बरगद की छाँव
बनी बैसाखी
       -नरेन्द्र श्रीवास्तव
श्याम की छवि
यमुना में समाई
सांवरी भई
      डा. रंजना वर्मा
सहे न सर्दी
झेली न जाए गर्मी
इन्सां अझेल
       -प्रियंका वाजपेयी
दहका जब
सूरज का तंदूर
पकी फसलें
       -राजीव गोयल
तुम्हारी यादें
तपी दुपहरी में
स्निग्ध छाया सी
     -सुशील शर्मा
अकेला साया
जाना पहचाना सा
तनहा चला
      -सुशील शर्मा
अक्स उसका
उसी रोज़ ही चन्दा
झील हो गया
       -विष्णु प्रिय पाठक
मौन ही सही
कहलवा लेती है
खामोशी सब
        -प्रियंका वाजपेयी
खो गई याद
अंतर मन कहीं
ढूँढ़ न पाया
       -जितेन्द्र वर्मा
फिर आओ माँ
बच्चा मुझे बना के
दुलाराओ माँ
       -निगम 'राज़'
बीज झांकते
धरा आँचल खोल
वृक्ष बनने
       -रमेश कुमार सोनी
अम्मा का प्यार
झरता है निर्झर
अनवरत
       -सुशील शर्मा
देखा न खुदा
माँ में ही देख रहा
उसका नूर
      -कैलाश कल्ला
जैसा था बोया
वैसा ही काटा, फिर
काहे का घाटा
       - अमन चाँदपुरी
धूप का कर्फ्यू
चिड़िया भूखी बैठी
दुखी पीपल
      -नरेन्द्र श्रीवास्तव
तीखी किरणें
धूप धरे तेवर
धरा है मौन
      -प्रियंका वाजपेयी
खोखला करे
चाहतों की नींव को
गरीबी घुन
       -राजीव गोयल
हवा का झोंका
आकाश में तैरते
सेमल बीज
       -विष्णु प्रिय पाठक
कुछ न किया
निठल्ले बैठे बैठे
नींद ने घेरा
     -जितेन्द्र वर्मा
ज्येष्ट की धूप
खाली गागर लिए
पानी खोजती
      -नरेन्द्र श्रीवास्तव
छोटा सा बीज
अंजुरी भर पानी
कुनमुनाया
       -सुशील शर्मा
नन्हा सा बीज
मुस्कुराता हंसता
धरा से फूटा
       -सुशील शर्मा
लगा सदमा
मुरझाई तुलसी
चल बसी माँ
      -अभिषेक जैन
धूप दबंग
बाहर निकले
तो पसीना छूटे
      -नरेन्द्र श्रीवास्तव
गाँव चौपाल
पीपल चौरा देता
पंचों का न्याय
       -रमेश कुमार सोनी
जुगलबंदी
*******
वट के घर
राहगीरों का रेला
छाँव उत्सव
      -नरेन्द्र श्रीवास्तव
पीपल नीचे
राहगीरों का मेला
ताड़ अकेला
      -राजीव गोयल
----------------
पिरोता रहा
आंसुओं की डोरी में
यादों के मोती
      -राजीव गोयल
सोना बखेरें
सूरज की किरणें
सागर वक्ष
     -जितेन्द्र वर्मा
थिरकी खूब
बनकर बाराती
दारू की घूँट
      -अभिषेक जैन
मुद्दत बाद
फिर जली अंगीठी
खुश रसोई
       -राजीव गोयल
सुबह शाम
सूरज की लालिमा
तुम्हारे नाम
       -निगम 'राज़'
बदला वक्त
तारा आसमान का
ज़मीं पे गिरा
      -राजीव गोयल
घर में बेटी
तुलसी का बिरवा
स्वर्ग का द्वार
       -सुशील शर्मा
चलते रहे
जिह्वा की कमान से
शब्दों के तीर
      -राजीव गोयल
छत में दिखे
चौदहवीं का चाँद
दो पाटों फंसा
       रमेश कुमार सोनी
नम है हवा
क्या रात भर तुम
रोईं थीं कल ?
       -राजीव गोयल
लड़ा के हवा
भागी आवारा हवा
लगा दी आग
        -राजीव गोयल
प्रीत की डोर
जोड़े ही रखिएगा
बात गहन
       -प्रियंका वाजपेयी
जीवन मृत्यु
सुबह और शाम
पूर्ण विराम
      -शिव डोयले
शाम हो गई
थक गया शहर
आस खो गई
      -नरेन्द्र श्रीवास्तव 

धूप कुंदन की समीक्षा

<धूप कुंदन (हाइकु रचनाएं ) डा. सुरेन्द्र वर्मा, उमेश प्रकाशन, १००,लूकरगंज, इलाहाबाद-१, २००९, मूल्य,१२५ /

प्राक्कथन : हिन्दी हाइकु

    हिन्दी जगत में जापानी काव्य-रूप, हाइकु, मुख्यत: अपने कलेवर से जाना जाता है |   हाइकु कवितायेँ कुल तीन तीन पंक्तियों की होती हैं | लेकिन हर तीन पंक्ति की कण विता को हाइकु नहीं कहा जा सकता | इन यीन पंक्तियों का भी एक अनुशासन है | इनमें से प्रथम ५, द्वितीय ७, और तृतीय पंक्ति पुन: ५ अक्षरों की होती है | हिन्दी हाइकु ने अब इस अनुशासन को लगभग स्वीकार कर लिया है | यह अनुशासन जापानी हाइकु रचनाओं के कलेवर से सर्वाधिक मेल खाता हुआ भी है |
   लेकिन क्या हर कविता जो इस अनुशासन को स्वीकार करती है 'हाइकु' की श्रेणी में रखी जा सकती है ? कलेवर की दृष्टि से नि:संदेह यह एक हाइकु कहा जा सकता है, लेकिन जापान में हाइकु के साथ एक शर्त और भी रही है कि हाइकु रचनाओं के साथ एक ऋतुबोधक संकेत अवश्य होना चाहिए | इसे जापानी भाषा में 'किगो' कहते हैं | हिन्दी में ऋतु संकेत से युक्त अनेकानेक हाइकु रचनाएं की गई हैं | लेकिन हिन्दी ने 'किगो' की शर्त से बंधना स्वीकार नहीं किया है | 'किगो' रहित हाइकु कलेवर की कवितायेँ भी यहाँ हाइकु ही कहलाती हैं | वस्तुत: कालान्तर में जापान में भी एक अधिक उदारवादी दृष्टिकोण अपनाया गया और हाइकु के लिए 'किगो' अनिवार्य नहीं रहा |
     आपको हिन्दी में ऐसी अनेकानेक हाइकु रचनाएं मिल जाएंगीं जिनमें हाइकु के कलेवर का भी ध्यान रखा गया है और ऋतु बोधक संकेत भी है फिर भी इन्हें हाइकु कहने में संकोच हो सकता है | इसका कारण है | हाइकु क्या, कोई भोई कोई भी एनी कविता क्यों न हो, वह कविता इसलिए होती है कि उसमें 'काव्य-तत्व' होता है | अन्य काव्य-रूपों की तरह हाइकु रचना भी एक कविता ही है और इसलिए उसमें 'काव्य-तत्व' होना भी, कविता होने के नाते, अनिवार्य है | हिन्दी में इन दिनों हाइकु लेखन की बाढ सी आई हुई है | लेकिन ये हाइकु भले ही अपने कलेवर में हाइकु का अनुशासन करते हों, उनमें से अधिकतर, काव्य-तत्व के अभाव में, हाइकु नहीं कहे जा सकते | काव्य-तत्व से आशय मोटे तौर पर कथ्य की मौलिकता और अभिव्यक्ति के सौन्दर्य से है |
     जापान में 'हाइकु' और 'सेंर्यु' (सेनारियु) में एक स्पष्ट भेद किया गया है | जब हाइकु के कलेवर में कवि  सामाजिक विडम्बना और विरोधाभास पर छीटा कसता है, व्यंग्य करते हुए उनपर हंसीं उडाता है, तो ऐसी रचनाओं को जापान में सेंर्यु कहा गया है | स्पष्ट ही कथ्य की दृष्टि से हाइकु और सेंर्यु में एक ऐसा भेद है जो एक ही कलेवर की रचनाओं को दो प्रारूपों में विभाजित करता है | हिन्दी में इस विभाजन को आम तौर पर स्वीकार नहीं किया गया है | सामाजिक्र सन्दर्भ से युक्त  हास्य-व्यंग्य की हलकी-फुलकी रचनाओं को भी, जो हाइकु कलेवर को स्वीकार करती हैं, हिन्दी जगत में हाइकु ही कहा गया है | यह उचित भी लगता है | केवल कथ्य की दृष्टि से हाइकु कलेवर की रचनाओं का एक अलग वर्ग तो हो सकता है ( और इस प्रकार कविताओं को कई वर्गों में रखा जा सकता है) लेकिन उन्हें एक अलग नाम देकर उनकी एक स्वतन्त्र पहचान के लिए जिद करना हिन्दी जगत की उदार वृत्ति के अनुरूप नहीं है | हाइकु को ही यदि थोड़ा व्यापक दृष्टि से देखा जाए तो उसमें सेंर्यु सम्मिलित किया जा सकता है |
      छोटी भले हो हाइकु रचना अपने में एक पूर्ण कविता है | किसी भी हाइकु का सम्बन्ध, उसको समझ पाने के लिए, किसी अन्य हाइकु से नहीं होता | हर हाइकु अपने में स्वतन्त्र होता है | यह 'मोनेड' ('चिदणु')की तरह होता है | पूरी तरह गवाक्षहीन |वह दूसरी हाइकु रचनाओं में तांका झांकी नहीं करता | जैसे, उदाहरण के लिए, हिन्दी में हर दोहा अपने में स्वतन्त्र होता है, उसी तरह हाइकु भी है | दोहा गीत नहीं लिखे जाते | दोहा एक मुक्तक काव्य है | दोहों का, हर दोहे का, अपना एक स्वतन्त्र वजूद है | हाइकु रचना भी इसी प्रकार की होती है | हिन्दी में इन दिनों अनेक स्वनाम धन्य हाइकुकार अनेक हाइकु रचनाओं से 'गीतों' आदि, की रचनाएं कर रहे हैं | मुझे लगता है, यह हाइकु की स्वतन्त्र इकाई के प्रति बड़ा अन्याय है |
      किन्तु हाइकु के साथ कुछ प्रयोग तो मैंने भी किए हैं | 'हाइकु पह्रेलियाँ' 'सुखन हाइकु' आदि | लेकिन इन  प्रयोगों में मैंने न तो हाइकु के कलेवर से छेड़खानी की है और न ही इनकी 'स्वतंत्रता' पर आंच आने दी है | प्रस्तुत संकलन में अनेक हाइकु सामाजिक सन्दर्भ से जुड़े हुए हैं लेकिन उन्हें मैंने 'सेंर्यु' न कहक|र हाइकु-रचनाओं के अंतर्गत ही रखा है |  हाँ, हाइकु कलेवर में कुछ मूलत: व्यंग्य विनोद कविताओं का एक अलग वर्ग बना कर 'हास्य-व्यंग्य हाइकू' शीर्षक दे दिया है | मुझे जापानी भाषा नहीं आती | पर कतिपय जापानी रचनाओं के अनुवाद अंग्रेज़ी में पढ़े हैं | डा. सत्यभूषण वर्मा के कुछ मूल जापानी भाषा से हिन्दी अनुवाद भी देखे हैं इन्हीं को आधार बना कर कुछ जापानी रचनाओं की मैंने पुनर्रचना की है और उन्हें 'हाइकु जापानी गूँज' शीर्षक के अंतर्गत सम्मिलित किया है ||
      हाइकु एक कठिन विधा है क्योंकि इसमें कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक कहा जाता है |मैं आरम्भ में हाइकु तो नहीं किन्तु तीन तीन पंक्तियों की छोटी और गंभीर कवितायेँ लिखता रहा हूँ | वे 'नया प्रतीक' और 'आजकल' आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुई हैं | आजकल (१९६६) में प्रकाशित मेरी सबसे पहली कविता हाइकु-नुमा ही थी |
    यह जिसे तुम कुकुरमुत्ता कह रहे हो
    माँ धरती के ह्रदय का दर्द है
    ऊपर उफन कर आ गया है
'नया प्रतीक' (१९७८) में 'चार छोटी कवितायेँ' शीर्षक से प्रकाशित कविताओं में एक यह भी थी --
    याद कोई रेंगती है मन में
    ज़मीन पर केंचुआ
    लकीर छोड़ता है
इसी प्रकार 'नए-पुराने' (१९७८) में 'सप्त भंगी गौरैया' शीर्षक से प्रकाशित सात कविताओं में से एक गौरैया संबंधी कविता इस प्रकार थी ---
    स्थिर होने के लिए फड़फड़ाती
    गौरैया एक बेचैनी है
    तड़प तड़प जाती
ऐसी ही रचनाओं ने हाईकु लेखन के लिए मेरी पृष्ठभूमि तैयार की | इस तरह की हाइकु-नुमा कवितायेँ हिन्दी में खूब लिखी गई हैं और आज भी लिखी जा रही हैं | इन्हें प्राय: क्षणिकाएं कहा गया है |ऐसी कविताओं में मितव्ययता के साथ भाव-उदात्तता भी देखने को मिल जाती है |
      १९९४ -९७ के बीच जब मैं वाराणसी में पार्श्वनाथ विद्यापीठ में उपनिदेशक था मुझे  जैन दर्शन के अध्ययन- अध्यापन का अवसर प्राप्त हुआ था | मुझे लगा कि जिस प्रकार जापान में हाइकु ज़ेन-दर्शन का वाहक बना, भारत में जैन-दर्शन का वाहक भी वह बन सकता है | तब मैंने हाइकु को श्रमण परम्परा से जोड़कर लगभग १०० हाइकु लिखे | ये सबसे पहले 'तीर्थंकर' (इंदौर) में जैन सूक्तिकाए शीर्षक से ९६-९७ में धारावाहिक रूप से प्रकाशित हुए | बाद में 'सूक्तिकाएं' नाम से पुस्तिका के रूप में भी पार्श्वनाथ विद्यापीठ ने इन्हें प्रकाशित किया | कमलेश भट्ट कमल ने 'हाइकु १९९९' प्रतिनिध हाइकु कविताओं का जो संकलन निकाला था उसमें इसी 'सूक्तिकाएं' पुस्तिका से मेरे हाइकु चयन किए गए |
       डा. भगवतशरण अग्रवाल ने १९९८ से 'हाइकु-भारती' पत्रिका निकालना आरम्भ किया | यह पत्रिका संभवत: २००४ तक निरंतर प्रकाशित होती रही | इसमें मेरी हाइकु रचनाओं को नियमित स्थान मिला | वस्तुत: इस पत्रिका ने मुझे हाइकु लिखने के लिए खूब प्रोत्साहित भी किया | २००१ से प्रकाशित होने वाली "हाइकु-दर्पण" पत्रिका के अबतक ९ अंक  प्रकाशित हो चुके हैं | इस पत्रिका ने भी मुझे सम्मान पूर्वक छापा है | हाइकु लेखन के मेरे विकास-क्रम में 'हाइकु-भारती' और 'हाइकु-दर्पण' इन दोनों ही पत्रिकाओं का काफी योगदान रहा है |
       एक विदेशी काव्य-विधा होने के कारण  हिन्दी हाइकु लेखन को जो प्रतिष्ठा मिलनी चाहिए थी, शायद वह अभी तक नहीं मिल पाई है | लेकिन हिन्दी हाइकु-लेखन अब धीरे धीरे परिपक्कव होता जा रहा है | हिन्दी ने कई अंगरेजी काव्य-रूपों को अपनाया है , जैसे सोनेट, आदि | फिर हाइकु से ही परहेज़ क्यों ? सच तो यह है कि अंग्रेज़ी की अपेक्षा जापान की संस्कृति हिन्दी भाषियों और भारतवासियों के अधिक नज़दीक है | हिन्दी के व्यापक विकास के लिए आवश्यक है कि वह अपनी खिड़कियाँ खुली रखे |

                                                                                                         -सुरेन्द्र वर्मा
२०-१२-०९
१०, एच आई जी
१, सर्कुलर रोड , इलाहाबाद -२११००१



अनुक्रम

हाइकु रचनाएं
हास्य-व्यंग्य हाइकु
हाइकु पहेलियाँ
सुखन हाइकु
हाइकु- जापानी गूँज
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डा. कमल किशोर गोयनिका   (दिल्ली) की एक संक्षिप्त टिप्पणी ---

आपके हाइकु पढ़े तो आपकी बारीक पकड़ और अभिव्यक्ति कौशल का ज्ञान हुआ | हाइकु लिखना कठिन कार्य है | विदेशी छंद है और उसकी अपनी मर्यादाएं हैं | आपके हाइकुओं में गंभीरता और विस्तार है | इनमें जीवल धड़कता है, प्रकृति बोलती है और मनुष्य का मन स्वप्न लेता है | आपके अनेक हाइकु हाइकु के इतिहास में याद किए जावेंगे |
२०.३. ०९

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पुस्तक समीक्षा : <धूप कुंदन> (हाइकु रचनाएं) /डा. सुरेन्द्र वर्मा /उमेश प्रकाशन, इलाहाबाद /२००९ /पृष्ठ ११२ / मूल्य रु. १५०/- |
                                  मन लुभाता संग्रह
                                   डा. सुधा गुप्ता
      डा. सुरेन्द्र वर्मा हिन्दी साहित्य जगत में एक जाना-माना नाम है | आप दर्शन-शास्त्र के गंभीर अध्येता तथा व्यवसाय / आजीविका के सन्दर्भ में भी उसी से जुड़े हैं | हाइकुकार के रूप में ‘हाइकु-भारती’ के माध्यम से उनकी पहचान बनी थी | इस सबके अतिरिक्त उनका समीक्षक रूप मुखर है |
    डा, वर्मा से मेरा परिचय दशकों पुराना है | मुझे याद है, अपनी नवीन प्रकाशित कृति जब भी उन्हें भेजती, अल्प समय के भीतर ही उसे पढकर पत्र द्वारा अपनी टिप्पणी भेजते.... बीच में यह क्रम भंग हो गया, मुख्य कारण तो मेरी शारीरक अस्वस्थता एवं तज्जन्य अकर्मण्यता ही रहा | हाइकु-दर्पण के किसी अंक में “धूप-कुंदन” के प्रकाशन की सूचना एवं संक्षिप्त समीक्षा पढी तो मैं प्रतीक्षा करती रही किन्तु निराश होना पडा.... मैंने आहात अनुभव किया... फिर बहुत समय बीत गया,,,,न कोई पत्राचार न कोई संवाद | २०१४ में किसी सन्दर्भ में फोन पर बात हुई तो मैंने अपनी शिकायत और उलाहना उनके सामने स्पष्ट रूप में रख दिया | सुनकर डा वर्मा अचंभित हुए |’क्या आपको धूप-कुंदन नहीं मिली? मैं तो यह सोच कर दुखी रहा की सुधा जी ने पुस्तक प्राप्ति-स्वीकार भी नहीं भेजी | कुछ रुककर फिर कहा, “तुरंत भेझता हूँ |” सब धूल साफ़ हो गई | देखा, गलत-फहमियाँ कितनी बेबुनियाद (भी) हुआ करती हैं |
    एक सप्ताह के भीतर दो पुस्तकें प्राप्त हो गईं | <धूप-कुंदन> और <उसके लिए> | कविता संग्रह <उसके  लिए> में बहुत छोटी, मार्मिक क्षणिकाएं हैं और स्वयं डा. सुरेन्द्र वर्मा द्वारा किया हुआ रेखांकन है | निश्चय ही इस  कविता-संग्रह पर पृथक से विस्तार में लिखने की आवश्यकता है | पर फिलहाल, बात <धूप कुंदन> की |
    जैसा की पूर्व में कहा गया, डा. सुरेन्द्र वर्मा अनेक विधाओं के रचनाकार हैं | एक ओर दर्शन एवं नीति- शास्त्र पर गंभीर गद्य-लेखन (निबंध) दूसरी ओर व्यंग्य, कविता, हाइकु जैसी विधाएं | एक नया शौक़, चित्रकारी का विक्सित हुआ है | हाइकु-लेखन में पर्याप्त प्रसिद्धि है | सर्वप्रथम श्री कमलेश भट्ट “कमल” द्वारा संपादित <हाइकु-१९९९> में मैंने पढ़े थे मैंने सात हाइकु, जिनमें उनका ‘दर्शन’ झिलमिलाता है |
० मौत पर है / एक तीखी टिप्पणी / यह ज़िंदगी                                                                   ० सुख हमारे / भागती-सी शाम की / परछाइयां   
यथार्थ से जुड़ा यह हाइकु भी मुझे बहुत अच्छा लगा –                                                               ० धरती पर /यदि टिके रहे तो / नभ छू लोगे  ||
    उस समय तक उनकी हाइकु छंद में रची श्रमण-सूक्तियां “सूक्तिकाएं” प्रकाशित हो चुकी थीं जो काफी चर्चित रहीं |
    <धूप-कुंदन> ११२ पृष्ठ की आकर्षक आवरण वाली सजिल्द पुस्तक है | “प्राक्कथन-हिन्दी हाइकु” में हाइकुकार ने संक्षेप में इस विधा पर अपने सुलझे हुए विचार प्रस्तुत किए हैं | धूप-कुंदन विविध वर्णी रचना है जिसमें अनुक्रम इस प्रकार है – (१) हाइकु रचनाएं (२) हास्य-व्यंग्य हाइकु (३) हाइकु पहेलियाँ (४) सुखन हाइकु (५) हाइकु जापानी गूँज |
    प्रथमत: हाइकु रचनाएं शीर्षक में ६४६ हाइकु हैं | तत्पश्चात, ३२ हास्य-व्यंग्य, १५, पहेलियाँ, ०८ सुखन हाइकु तथा २७, जापानी गूँज – कुल संख्या ७२८ |
हाइकु रचनाओं के कुछ खूबसूरत हाइकु –
१) उगता चाँद / संग डूबता सूर्य / जीवन-मृत्यु                                                                      २) करकते हैं /जो पूरे नहीं होते / आँखों में स्वप्न                                                             ३) कितनी मौतें / भोगी मैंने, जीवन / एक इसी में
हाइकुकार अकेलेपन की पीड़ा को इस प्रकार अंकित करता है –
४) घिरती सांझ / घिरता सूनापन / जान अकेली                                                                      ५) कभी डराता / कभी तसल्ली देता / अकेलापन                                                             ६) फरनीचर / भरा हुआ है घर / कितना खाली                                                             ७) मिट न पाया / भीड़ में रहकर / अकेलापन
हाइकुकार की यही दार्शनिक वृत्ति उसे जीवन के विभिन्न पक्षों को तटस्थ रहकर एक दृष्टा की भाँति देखने को प्रेरित करती है |
   डा, वर्मा को प्रकृति से प्रेम है | और उनकी कूची ने सुन्दर प्रकृति दृश्यों का चितांकन किया है |
८) पहने साड़ी / सरसों खेत खड़ी / ऋतु वासंती                                                                      ९) फूले पलाश / कोयल बोले बैन / चैट उत्पाती                                                        १०) लुटाती मस्ती / बयार ये वासंती / फगुनहट     (वसंत)                                                                    ११) तपे आग में / अमलतास टेसू / उतरे खरे                                                                     १२) दस्तक देती / महक मोगरे की / खोलो कपाट     {ग्रीष्म)                                                                    १३) दबी धरा में / मुक्त हो गई गंध / स्वागत वर्षा    (पावस)                                                                   १४) नाचती हुई / आती हैं धरा पर / पीली पत्तियाँ                                                              १५) पग पग पे / पापड सी टूटतीं / पीली पत्तियाँ     (शिशिर)
    एक शालीन साहित्यकार अपनी प्रणय-भावना भी परिष्कृत रूप में अभिव्यक्त करता है, डा,वर्मा इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं –
१६) तुम्हारा आना / दो पल रुक जाना / दो-दो वसंत                                                               १७) तुम आईं तो / धूप खिली आँगन / ऋतु बदली
प्रिया की स्मृतियाँ भी सुखद हैं –
१८) याद तुम्हारी / सर्दियों में धूप सी / आती सुखद                                                                १९) पन्नों में दबी / पीली पांखुरी गिरी / हो गई ताज़ी
    प्राय: प्रत्येक संवेदनशील रचनाकार के जीवन में कभी न कभी ऐसा होता है की यदि कोई विचार या भाव मन में आ जाए, जबतक अभिव्यक्त न हो जाए तो मन बेचैन हो उठता है, नींद नहीं आती, आदि | डा, वर्मा ने इसे यूं कहा है –
२०) जगता रहा / हाइकु सारी रात / उचटी नींद
    प्रतीकों के सुन्दर प्रयोग इस काव्य संग्रह की विशेषता है | प्रतीकार्थ ध्वनित होते हैं, अभिधार्थ बहुत पीछे छूट जाता है और वास्तविक अभिप्रेत अर्थ पूरी तरह पाठक को बाँध लेता है  ---
२१) लड़े जा रही / अपने ही बिम्ब से / मूर्ख चिड़िया                                                                  २२) शिशु चिड़िया / को मोह रहा कब / फूटे अंडे से                                                              २३) प्यासा परिंदा / भरे घट तक आ / गिरा बेसुध                                                                 २४) दबंग दिया / जलते रहने की / जिद में बुझा
    ‘हास्य-व्यंग्य हाइकु’ पाठक का मनोरंजन करने में समर्थ हैं | “शब्द’ से उत्पन्न चमत्कार दर्शनीय है ---
२५) मनहूसियत / ओढ़ कर पड़े हैं / श्री बोरकर                                                                    २६) श्रीमती गंधे / उचकाती हैं कंधे / डालती फंदे
    राजनीति के सन्दर्भ में श्लेषार्थ प्रकट होते ही ‘साहित्य’ का सौन्दर्य खिल उठा है | ---
२७) गाय को मिली / रोटी अनुदान में / खा गया कुत्ता                                                                          २८) सर्प नाचते / भैंस बजावे बीन / ऋतु रंगीन                                                                    २९) कुत्ता उसका / पूर्व जन्म का मित्र / पूंछ हिलाता
    पहेलियाँ और सुखन हाइकु पढ़कर पाठक निश्चय ही अपने बचपन में लौट जाता है | हाइकु –जापानी गूँज, के अंतर्गत जो हाइकु दिए गए हैं, वे सीधे अनुवाद न होकर छायानुवाद / भावानुवाद हैं | अत: अनुगूँज की सा- र्थकता सिद्ध हो जाती है |
    शीर्षक हाइकु से समापन करती हूँ –
३०) लुभावे मन / जाड़े की सर्दी में / धूप कुंदन
<धूप कुंदन> हाइकु संग्रह सचमुच मन लुभाता है | अशेष शुभकामनाएं |

                                                                     डा. सुधा गुप्ता

१२० बी /२, साकेत, मेरठ (उ, प्र.)