रविवार, 30 अप्रैल 2017

दहकते पलाश

मैं और मेरे ग्रंथ  (१) दहकते पलाश

दहकते पलाश 
(हाइकु-संग्रह)
अयन प्रकाशन , महरौली, नई दिल्ली 
प्रथम संस्करण २०१६ @डा. सुरेन्द्र वर्मा 
मूल्य : २२०.०० रुपये
                                   हिन्दुस्तानी अकादमी, इलाहाबाद, में दहकते पलाश का विमोचन
                                                प्रसिद्द गीतकार श्रीमती सुषमा सिंह द्वारा संपन्न |

दो शब्द 
   'सूक्तिकाएं' और 'धुप कुंदन' के बाद 'दहकते पलाश' मेरा तीसरा हाइकु संग्रह है | इसमें मैंने करीब ३३५ हाइकु संकलित किए हैं | 
    इन दिनों हाइकु परिवार की अन्य विधाओं पर भी हिन्दी रचनाएं खूब लिखी जा रहीं हैं | मैंने इस विधा में कम ही लिखा है, लेकिन कुछ 'तांका' और 'सेदोका' सम्मिलित कर लिए हैं | 
    पीछे दो संकलनों से मुझे सहृदय पाठकों से जो कुछ प्रतिक्रियाएं मिली हैं, उनमे से कुछ इस पुस्तक में 'परिशिष्ट' में डाल दी गईं हैं | मेरे पास नाहक ही अनदेखी पडी रह जातीं | 
    मेरा हाइकु-लेखन लगभग ठप्प-सा हो गया था | लेकिन पिछले वर्ष से इसमें थोड़ी गति आई है | इसका श्रेय ई-पत्रिका "हिन्दी हाइकु" को जाता है; प्रकारांतर से श्री रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' और डा. हरदीप संधु को जाता है | मैं इन दोनों रचना कारों का शुक्रगुजार हूँ | मैं अयन प्रकाशन को भी धन्यवाद देता हूँ, जिसने इस संकलन को सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है |
                                                                             -सुरेन्द्र वर्मा 

अनुक्रम
खंड १ (हाइकु)
चांदनी रात में 
यह वक्त है 
दाम चुकाओ 
ऊंचा गंभीर 
जो है एकाकी 
खरा जल 
आस पास ही 
खाएं खजूर 

खंड २(तांका  और सेदोका)

१, तांका
२, सेदोका 

* परिशिष्ट 
-------------------------------- 

                    पुष्पा मेहरा की समीक्षा           
       दर्शनशास्त्र के वरिष्ठ अध्येता,कवि,चिन्तक,लेखक,व्यंग्यकार,समीक्षाकार ,रेखाकार,हाइकुकार आदि विशेषणों से सर्वमान्य वर्मा जी का हाइकु-संग्रह ‘दहकते पलाश’ हाथ में आते ही सर्वप्रथम मन प्रश्न पूछने लगा कि रंग और गुणों से सम्पन्न,बसंत और फाग के रंग में फूला पलाश आखिर कवि मन को दाहक क्यों लगता है ,क्या एक ओर इसका गुनगुना सा मादक रंग,खिला –निखरा –निष्कलुष रूप, इसका तिर्यक भ्रूविलास और दूसरी ओर माया जनित सौन्दर्य और गुणों –अवगुणों के दर्पण को निहारता मानव मन स्वाभाविक स्पर्धा वश ईर्ष्या की आग में दहक उठता है ! ये सारे प्रश्न जो मेरे मन को कुरेद रहे थे उनके उत्तर मुझे इस संग्रह रूपी सागर में अवगाहन करने से स्वमेव ही प्राप्त हो गए |
            वास्तव में यह हाइकु-संग्रह, एक कुशल सम्वेदनशील रचनाकार के मनोभावों ,गहन विचार ,गम्भीर सोच का, नाना बिम्बों –प्रतिबिम्बों के माध्यम से गढ़ा देश व समाज का स्पष्ट आइना है | पलाश का फूल एक साधारण फूल नहीं वह तो पुष्पराग है उसका स्वरूप तथा उसमें स्वयं को पूर्णतया समा लेने की मानव मन की अतिशय अप्राप्य लालसा ही मन को दग्ध करती है , तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो सारा जड़ –चेतन यानि कि सारा संसार चकित कर देने वाले विरोधाभास से गुज़र रहा है | एक  ओर यह संसार हँसते –खिलखिलाते पलाशवन की भाँति मोहक है तो दूसरी ओर प्रकृति,परिवार और समाज की नाना प्राकृतिक व स्वपोषित विसंगतियों से भरा पड़ा है जो कभी हमें उनसे निपटने का सुलझा मार्ग सुझाती हैं तो कहीं हमें असहाय बना के छोड देती हैं | प्रकृति समाज और उसकी इकाई इन्सान यहाँ तक की पशु –पक्षी,वन्य प्राणी सभी तो इसी घेरे में आबद्ध-संघर्षरत हैं इन्हीं भावों का चित्रण वर्मा जी ने ८ खंडों और उपखंडों में विभाजित इस हाइकु संग्रह में कुशलता से किया है | शेष रहा परिशिष्ट तो वह तो उनकी अन्य रचनाओं के प्रति वरिष्ठ साहित्यकारों के अभिमत की गूँज है | संक्षेपत: वर्मा जी ने जीवन-जगत के हर पक्ष को अपने हाइकु के माध्यम से वाणी दी है ,मैंने  इन्हीं तथ्यों पर प्रकाश डालने का,दूसरे शब्दों में रचनाकार की अनुभूतियों को स्वयं भी हृदयंगम कर उनको उकेरने का छोटा सा प्रयास किया है | 
   जन्मदात्री माँ की तरह धरती भी तो हमारी माँ ही है वह तो स्वर्ग से भी महान है, पूज्य है,सर्वोपरि है अत: वर्मा जी सर्वप्रथम धरती माँ की दयनीय स्थिति को याद करते हुए यह बताना नहीं भूलते कि नाना दु:खों को सहती-सदा शांत रहने वाली धरती दारुण दुःख का आघात पा जब कभी काँप कर अपनी पीड़ा का हमें अहसास करा देती है | शांति का साकार रूप धरा जब, प्राकृतिक आपदा भूकम्प के असह्यआघातसे अपनी प्रतिक्रिया दिखाती है तो मानवीय सम्वेदना की अनुभूति मन को उसकी मूक पीड़ा का अहसास कराने से नहीं चूकती, निम्न हाइकु मानवीकरण का उत्कृष्ट उदाहरण है –
भूकंप आया
शांत धरा का दुःख
समझ पड़ा |
      ग्रीष्मऋतु की विभीषिका,गर्म लू के थपेड़े, जलाभाव से संत्रस्त पशु –पक्षी की व्यथा चंद वर्णों में मुखरित हो रही है | दहकती गर्मी का दृश्य प्रस्तुत करता मर्म भेदी निम्न हाइकु मन को हिला रहा है -
.  गर्म हवाएँ
 धरती पर निढाल
 हाँफता कुत्ता |

   चिड़िया प्यासी
नल की सूखी टोंटी
चोंच मारती |
        सिक्के के दो पहलू की भाँति जीवन के भी दो पहलू की ओर इंगित करता अनुभवों की लड़ी पिरोता निम्न हाइकु जीवन की सच्चाई बता रहा है-
कुछ कड़वी
निबौली सी ज़िन्दगी
कुछ मीठी सी |
             पर्यावरण के प्रति जागरूक कवि जब देखता है कि जंगल कटते जा रहे हैं,मनुष्यों में बहशीपन बढ़ता जा रहा है, मनुष्य मानवीय आचरणों को भूल अमानुषिक व्यवहार करने पर उतारू है तो सहृदय मन चीत्कार कर स्वयं से और हम सबसे प्रश्न पूछता है कि बताओ तो ज़रा-
जंगल कटा
जंगलीपन बढ़ा
कैसा विकास |
     उद्धृत है मौसम पर आश्रित घटते-बढ़ते समय की उपमा रबर से कर नया  उपमान प्रस्तुत करता निम्न हाइकु –
यह वक्त है
रबर सा खिंचता
सिकुड़ता है |
   आज की स्वार्थी दुनिया में सभी अपने में खोए हैं ,एक दूसरे के दुःख –दर्द को सुनने –समझने व बाँटने वाला कोई भी नहीं है ,ऐसे आत्मकेंद्रित समाज की करुणा जगाने वाली स्थिति का दृश्य मात्र नन्हे हाइकु में समा कर इसकी गूढ़ता को दुगना –चौगुना कर रहा है –
सिमट रहे
घरों में लोग ,चीखें
बुलाती रहीं |
चाटुकारिता का विरोध करते हाइकु के स्वरों का उद्घोष देखते ही बनता है –
जी –हाँ –जी,स्वर
है नहीं सामयिक
करें विरोध |
     एक चिंतन शील विचारक जब जीवन –जगत से जुड़ा डगमगाती सामाजिक स्थिति,अराजकता,बेरोजगारी,अशिक्षा,संकीर्णता,आतंक,हत्या-आगजनीसी भयावह स्थितियों के अनुभवों से गुजरता है तो उसके सारे अनुभव शब्दों में ढल कर प्रश्न बन जाते हैं और उत्तर खोजता –असहाय समाज नि:शब्द रह जाता है,      डॉ.वर्मा जी का निम्न हाइकु इसी का प्रमाण है –
कहाँ खो गयी
दिलों में इंसानों के
इंसानियत |
     भरोसे की कमी ही परस्पर नाते –रिश्तों में फूट डालने का काम करती है और आपसी उदासीनता का कारण भी ,साथ में सदा सर चढ़ बोलने वाला अहंकार हर असंयमित व्यक्ति के मन की कोठरी से उछल –उछल कर उसी प्रकार बाहर आ जाता है जिस प्रकार हाथ की उँगली में पहनी गयी हीरे की अँगूठी की चमक–झलक छिप ही नहीं पाती ,ऐसे बिंब प्रधान हाइकु तो आम व्यक्ति के मनोभावों को सहजता से खोल कर रख देते हैं देखिये –
ऐसे या वैसे
भरोसा ही न रहा
जुड़ते कैसे |      

कैसे छिपाऊँ
अहं हीरे की कनी
अँगूठी जड़ी|
         डॉ.वर्मा जी का दार्शनिक मन मायावी चकाचौंध में फँसे, जीवन-जगत की लुभावनी सच्चाई से अनभिज्ञ- अज्ञानी लोगों को सचेत करते हुए कहता है कि सुनो तो जिसे हम देख- सुन रहे हैं, जिसे हम सत्य मान रहे हैं वह सत्य नहीं है  -
देखा जो भी
केवल सत्याभास
सत्य नहीं था |  
    एक अज्ञात रहस्य में जीता, माया के चक्रव्यूह में फँसा व्यक्ति सत्य –असत्य का भेद नहीं समझ पाता ,जो दृश्यमान है वह सत्य नहीं है इस तथ्य को या तो जानता ही नहीं है या जानकर भी नहीं समझता कि ‘ब्रह्म सत्यम जगत मिथ्या,’ भ्रममें भूला ये मानव मन ही तो है जो मुझे भी लिखने को बाध्य कर है रहा कि सदा – ‘पालता भ्रम\रस्सी में साँप का\हमारा मन’ |
     वास्तव में जग की रीति यही है कि कर्म कोई करता है और उस कर्म से प्राप्त सुख का उपभोग कोई अन्य ही करता . दूसरे शब्दों में कुआँ कोई खोदता है पानी कोई पीता है , मंच कोई सजाता है, स्क्रिप्ट कोई लिखता है और अभिनय कोई दूसरा ही करता है|  वस्तुत:वर्मा जी के जिस हाइकु को मैं उद्धृत कर रही हूँ वह उस छोटी सी बंद डिबिया की तरह है जिसको खोलने से कई झिलमिलाते रंग छिटक जाते हैं , प्रस्तुत है बहु भावार्थी हाइकु –
कोई उठाए
पालकी और बैठे
पालकी कोई |
   क्षमा कीजिएगा उपरोक्त हाइकु को पढ़ कर मैं स्वयं इसके दार्शनिक पक्ष की ओर बढ़ती हुई लिखने को विवश हो रही हूँ कि –
 जगत मंच
 मन के नेपथ्य में
 है सूत्रधार |                   
          हर सजग कवि या कहानीकार सामयिक प्राकृतिक विषमताओं के अच्छे  – बुरे प्रभावों से प्रभावित अपनी मन:स्थिति के अनुरूप अपनी रचना की विषय-वस्तु अवश्य चुनता है, यही कारण है कि पर्यावरण के विनाश से उत्पन्न भयावह स्थितियों का सामना करते कवि मन की सम्वेदना निम्न हाइकु में उभर कर आई है –
बाढ़ दुर्भिक्ष
तूफ़ान ज़लज़ला
घर उजड़े |
     बुद्धि चातुर्य के लिए साक्षर होना आवश्यक नहीं है यह मानना अनुचित न होगा कि साक्षरता बुद्धि को माँजती भर है बहुत सी अनपढ़ नारियाँ विद्वान पुरुषों को हर क्षेत्र में पीछे पछाड़ने की क्षमता रखती रही हैं और रखती भी हैं,निम्न हाइकु इसी भाव को दर्शा रहा है –
अनपढ़ स्त्री
साक्षर पुरुषों पे
पड़ती भारी |
     शब्दों में संसार को समाहित करने की शक्ति होती है, बाजारवाद के इस युग में अर्थ के बिना सब व्यर्थ है इस पर व्यंग्य कसते हुए कवि का कहना है -
ईश्वर नहीं
है सर्वशक्तिमान
पैसा,बाज़ार |    
  कैसी विडम्बना है कि इस अर्थ युग में मानवीय मूल्यों का भी व्यापार हो रहा है, पढ़ते ही असहाय मन विगलित हो उठता है कि देखो तो- 
दाम चुकाओ
मूल्य तक बिकते
बाज़ार विच |
       वर्मा जी ने जहाँ मूल्यों के अवमूल्यन को स्वीकारा है वहीं माता –पिता के रिश्तों की गरिमा,भावनात्मक स्तर पर अपनी संतानों के प्रति उनका अटूट जुड़ाव तथा स्थायित्व का जो उत्कृष्ट उदाहरण निम्न हाइकु के माध्यम से चित्रित किया है वह परोक्ष रूप से माता –पिता के प्रति कर्तव्यबोध कराता बार –बार पढ़ने,समझने व से उन्हें हृदय से लगाये रखने की प्रेरणा दे रहा है -
.ऊँचा गम्भीर 
 अचल हिमालय
 पिता सरीखा |

.बदला वख्त
 माता और पिता श्री
 कब बदले |
      जिस प्रकार खादी का कम्बल शुरू में तो शरीर को चुभन देता है किन्तु धीरे-धीरे वही शीत से ठिठुरती काया को गर्मी का सुख देता है उसी प्रकार माता –पिता द्वारा दी गयी नैतिक शिक्षाएँ भी स्वतंत्र विचारों वाली संतानों को आरम्भ में तो बुरी अवश्य लगेंगी किन्तु जीवन के मैराथन में कहीं न कहीं सहायक होती हैं | निम्न हाइकु में इस भाव की लाक्षणिक अभिव्यंजना ग्राह्य है –
खादी कम्बल
चुभता तो बेशक
गरमी देता |
     पारिवारिक सम्बन्धों में भाई –भाई के सम्बन्धों के विघटन से उद्वेलित मन से उपजा अनुत्तरित प्रश्न पाठक की सोच को झिन्झोरता है पर प्रश्न का उत्तर तो मानसिक तनाव के चक्रव्यूह से निकल ही नहीं पाता, उसने तो चक्रव्यूह भेदना सीखा ही नहीं, भाव की सहज अभिव्यंजना निम्न हाइकु में व्यंजित हो रही है –
एक जगह
हम पले–बढ़े,क्यों
अलग खड़े |
      पुस्तकें जो हमारे ज्ञान का श्रोत हैं, नैतिक शिक्षा- प्राप्ति का उपलब्ध साधन हैं उनसे प्राप्त सतज्ञान को जीवन में अपनाने की प्रेरणा देता निम्न हाइकु आदर्श वाक्य की तरह प्रस्तुत है -
ढंग जीने का
सीखा जो पुस्तक से
उसे उतारो |
    हम सदैव दीपक से प्रकाश की अपेक्षा करते हैं अर्थात् सारे आदर्शों को हम   दूसरे में ही देखना चाहते हैं परन्तु मानव मूल्यों व सिद्धांतों की लीक का स्वयं  अनुपालन  करते हुए समाज के सम्मुख आदर्श प्रस्तुत करने की चाह करते भावों से भरी आवाहन करती लेखनी कहती है - 
स्नेह उड़ेलो
स्वयं ही बनो दीप
उजियारा दो |
      श्रम का महत्व तथा एकता में बल का सकारात्मक संदेश देते अकर्मण्यता व अलगावबाद के वरोधी हाइकु समाज को सही दिशा सुझा रहे हैं देखिये -                         
.गहरा खोदो
 पाओगे जल मीठा
 कर्मठ ज्ञान |    

 कंधे से कंधा
 मिला करके चलें
 पहुँच जाएँ |
          साक्षरता और ज्ञान मनुष्य की बुद्धि का विकास कर पशुओं से ऊँचा उठा, उन्हें तर्क संगत दृष्टिकोण देता है, पशुओं का तो बौद्धिक विकास ही पूरा नहीं हो पाता , उनके लिए ज्ञान का होना न होना बराबर है,निम्न हाइकु इंसानों के लिए शिक्षा के महत्व का संकेत कर रहा है -
 पशु समान
 यह मानव देही
 बिना ज्ञान के |

 लीक-अलीक
 दोनों ही पथ खुले
 चुनना तुम्हें |




     डॉ.वर्मा जी के शब्द –शब्द में उनके अनुभवों की गहरी खनक है ,प्रस्तुत है       
अनुभूत सम्वेदना का निम्न भाव –
रोगी समाज
कहीं भी रखो हाथ
दर्द ही दर्द |
  उपरोक्त हाइकु नानक साहब के कहे शब्दों की कड़ी में कड़ी बन जुड़ रहा है कि ‘’नानक दुखिया सब संसारा’ |
        भाग्य व नियति को हम सभी मानते हैं और यह भी समझते हैं कि हम कितना ही पंडितों से, घटने वाली अच्छी –बुरी घटनाओं के पल –छिन, दिन वा समय की जानकारी लेना चाहें किन्तु सम्भव नहीं हो पाता ना ही होनी को कोई टाल ही पाता है, जो होना है वह तो चुपचाप हो कर ही रहेगा,नियति की महिमा बताता तथा उस पर विश्वास करता वर्मा जी का हाइकु कहता है कि –
चुपचाप ही
होता है सब कुछ 
अपने आप |
       दुःख में अपने ही काम आते हैं दूसरे नहीं ,अपनेपन की आँच को गह्माता अपनत्व के बंधन में मन को बाँधने का सहज आग्रह करता हाइकु, कवि मन की निष्कलुष-सरल छवि उभार रहा है |प्रस्तुत है सत्यता पर टिका हाइकु जो पाठकों को भटकने से रोकना चाहता है –
कोई न आया
हाथ अपना ही था
वो काम आया |
   परिवार ,समाज तथा राजनेताओं पर तीखा व्यंग्य बाण छोड़ता निम्न हाइकु अपनी अभिव्यंजना का सानी नहीं रखता –
चुपड़ी रोटी
लूट खाई पराई
मानो न मानो |
    समाज में जाति व वर्ग गत भेदभाव का विरोधी कवि मन निम्न हाइकु के माध्यम से बता रहा है की हम सब इन्सान एक समान हैं, कोई भी छोटा या बड़ा नहीं है, भाव की लाक्षणिक अभिव्यक्ति मन को कुछ सोचने के लिए विवश करती है –
पाँचों ऊँगली
सभी एक नाप की
मानो न मानो |
     जिस प्रकार वर्मा साहब जी के हाइकु में आपके भावों –अनुभावों की गूँज है उसी प्रकार ताँका व सेदोका में भी उनके अनुभवों का ताप है,तभी तो बर्फ़ का ठंडा शांत–निर्लिप्त टुकड़ा भी मानवी स्पर्श पा द्रवित हो ही जाता है,अर्थात स्नेहिल  सम्बन्धों की ऊष्मा हर शांत-तटस्थ मन को भी पिघला देती है | उदाहरण के रूप में प्रस्तुत है निम्न ताँका –
बर्फ़ का ठंडा
टुकड़ा ही क्यों न हो
शांत –निर्लिप्त
मानवी स्पर्श पाके
पिघल ही जाता है |        
   निम्न ताँका में नदी से प्रेरणा लेकर निरंतर आगे बढ़ कर ही लक्ष्य की प्राप्ति करना,अर्थात् अंतिम मंजिल पाने के लिये संघर्षों से टक्कर लेते हुए गति को ही जीवन की सार्थकता मानते हुए कवि ने लिखा है –
नदी बहती
कंकड़ों से जूझती
लक्ष्य पा जाती
क्यों न मैं आगे बढूँ
झंझटों से क्यों डरूँ |
         अंतिम सृजन खंड में मानवीय सम्वेदना से अभिभूत मन, मानवी अत्याचारों से रूँधी – गूँधी मौन,सहनशील ऊपर से कठोर पर भीतर से कोमल धरती से ही प्रश्न करता है कि बताओ तो –
धरती तुम
सतह पर सख्त
अंदर नीर –भरी,
कितने आँसू
रखे सुरक्षित हो
कोई नहीं जानता |
     उपरोक्त सेदोका मानवीकरण का सुंदर उदाहरण होने के साथ ही हर सहृदय मन को अभिभूत करने में पूर्णत: समर्थ है ,मुझे यह लिखने में संकोच नहीं हो रहा     
कि हमारी जीती –जागती माँ की भाँति यह धरती जितनी ऊपर से शांत,स्थिर व दृढ़ दिखती है भीतर से उतनी ही कोमल व सहृदय है,सदानीरा धरती की पीड़ा उसी की तरह अथाह है , उसके भीतर कितने आँसुओं का समन्दर समाया है हममें से कोई भी नहीं जान सकता, शायद शोषण से आहत की पीड़ा अव्यक्त ही रहती है ! 
      निष्कर्षत: मैं इतना ही कहना चाहूँगी कि सम्माननीय डॉ.वर्मा जी का हाइकु संग्रह ‘दहकते पलाश‘आपके अनमोल भाव रंगों का सागर है,चाँदनी रात में जिसकी  तरंगों के साथ जीवन के ज्वार –भाटे के अनुभवों को आपने भरपूर जिया ही नहीं अपितु अपनी काव्य मंजूषा में सम्पूर्ण रूप से परत दर परत सहेज कर रख दिया, यही कारण है कि इस मंजूषा की जो भी परत खुलती है उससे एक कुशल–जागरुक शब्द शिल्पी का संदेश उभर कर आता है | सारांशत: -
     अनुपम हैं
     दहकते पलाश
     रंग ही रंग |



दहकते पलाश (हाइकु-संग्रह) : डा. सुरेन्द्र वर्मा / अयन प्रकाशन, नई दिल्ली / २०१६ / पृष्ठ १०४ / मूल्य, २२० रु. ||

                              एक उम्दा हाइकु-कृति

                            प्रदीप कुमार दाश “दीपक”

    हिन्दी हाइकु आन्दोलन को आगे बढाने में डा. सुरेन्द्र वर्मा जी का नाम हिंदी हाइकु साहित्य में अग्रगण्य है | <दहकते पलाश> डा. सुरेन्द्र वर्मा का तीसरा हाइकु संग्रह है | एक बेहद आकर्षक मुख-पृष्ठ के साथ अयन प्रकाशन, दिल्ली, से प्रकाशित १०४ पृष्ठ की इस उम्दा हाइकु कृति की साज-सज्जा बेहतरीन है | संग्रह दो खण्डों में विभाजित है | प्रथम खंड में उत्कृष्ट हाइकु तथा द्वितीय खंड में २२ उत्कृष्ट तांका व ११ उत्कृष्ट सेदोका संग्रहीत हैं | परिशिष्ट में हाइकु विद्वानों की टिप्पणियों ने हाइकुकार की विद्वत्ता को उजागर किया है |
    संग्रह में प्रथम खंड के हाइकु आठ भागों में विभाजित हैं | प्रत्येक पृष्ठ में पांच हाइकु हैं, जिनमें कई तो मन पर सहज ही अमिट प्रभाव छोड़ जाते हैं –
चिड़िया रानी / नल की सूखी टोंटी / चोंच मारती   (पृष्ठ, ११)
डाली पलाश / रक्ताभ हुई, आया / बसंत राज     (पृष्ठ, १५)
फूली सरसों / रंग लाई नारंगी / गेंदा बौराया      (पृष्ठ, १६)
जलाते नहीं / दहकते पलाश / भरते रंग         (पृष्ठ, २१)
    प्रथम खंड के दूसरे से आठवें भाग तक की रचनाओं में सामाजिक सन्दर्भ तथा विभिन्न सामाजिक विसंगतियों के विरुद्ध उठी आवाज़ मुखरित है, और साथ ही प्रकृति के उत्कृष्ट बिम्ब भी समाहित हैं, ---
ऊंचा गंभीर / अचल हिमालय / पिता सरीखा
फूटी किरणें / स्नेह भरे दीपों की / फूटे अनार
    मुहावरों के सुन्दर प्रयोग भी मन मोहते हैं –“नाच न जाने / बेचारी करे तो क्या / आँगन टेंढा”      (पृष्ठ ६६)
    संग्रह के कुछ हाइकुओं में वर्नानुशासन की कमी अवश्य खटक रही है, परन्तु इनके भाव गंभीर हैं, ---
कितनी पीर / पी गया पर्वत / धाराएं फूटीं       (१६ वर्ण – पृष्ठ १४)
नभ निर्मल /  झिलमिलाती चांदनी / शरदोत्सव   (१८ वर्ण – पृष्ठ २४)
आज सवेरे / एक पंक्ति कविता / दिन अच्छा    (१६ वर्ण – पृष्ठ ४३)
दीप ने कहा / लड़ो अन्धकार से / यही संकल्प   (१८ वर्ण – पृष्ठ ४९)
खारा जल / आँखों के सागर में / कौन पी पाया? (१६ वर्ण – पृष्ठ ६०)
    हाइकु विधा के प्रोढ़ हाइकुकार डा. सुरेन्द्र वर्मा जी के <दहकते पलाश> हाइकु संग्रह में उनके उत्कृष्ट मानसिक हाइकु-बिम्बों के साथ-साथ कई उत्कृष्ट प्राकृतिक हाइकु-बिम्ब भी संरक्षित हुए हैं | हाइकु जगत में <दहकते पलाश> का एक उत्कृष्ट हाइकु संग्रह के रूप में स्वागत होगा | मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं है कि वरिष्ठ हाइकुकार आदरणीय डा. सुरेन्द्र वर्मा जी का नाम हाइकु इतिहास में बड़े आदर के साथ स्वर्णाक्षरों में लिपिबद्ध किया जाएगा |


साहित्य प्रसार केंद्र, सांकरा ,रायगढ़ (छत्तीसगढ़) 



                       संतोष कुमार सिंह : दहकते पलाश पर अभिमत

   हाइकु सत्रह अक्षरीय अतुकांत और छंद-मुक्त कविता है | इसमें कुल तीन पंक्तियाँ होती हैं | इन तीन पंक्तियों की सार्थकता अनिवार्य है अन्याथा तीनों पंक्तियाँ सिर्फ हाइकु का ढांचा ही कहालावेंगीं, हांइकु तो कदापि नहीं |
  हाइकु आवेगों की अभिव्यक्ति की कविता है जो क्षणिक अनुभूति कराती है | हाइकु का प्रकृति के साथ अनंत सम्बन्ध है किन्तु इसे प्रकृति का काव्य नहीं कहा जा सकता | ऋतु-बोध हाइकु की विशिष्ट पहचान है |    सूक्तियां और लोकोक्तियाँ प्रयुक्त कर हाइकु नहीं रचा जाता | हास्य-व्यंग्य भी हाइकु का विषय नहीं रहा है |
   डा. सुरेन्द्र वर्मा जी का हाइकु संग्रह, ‘दहकते पलाश’ का मैंने आद्योपांत अवलोकन किया है | पुस्तक का नाम ही प्रकृति का बोध कराता है | इसे पुस्तक के अन्दर हाइकुओं का सम्बन्ध प्रकृति के साथ होने का सूचक समझा जाना उपयुक्त लगता है और डा. सुरेन्द्र वर्मा ने ऐसे हाइकु तराशे भी हैं | देखें –
रूठी थी कली / वासंती सुगंध ले / भरी तो खिली
झड़े पल्लव / कैसे बने घोंसला / पक्षी उदास
जलाते नहीं / दहकते पलाश / रंग भरते
क्रोधी सूरज / तनकर चलता / पारा बढ़ता
लपेटे रही / कोहरे की चादर / बेचारी धूप
   मानव की परिस्थिति जन्य विवशता का सजीव चित्रण देखने लायक है --
पानी के बिना / तन तरबतर / हलक़ सूखा
   वर्मा जी लोगों को समय की महत्ता बताने की चेष्ठा करते हुए कहते हैं ,
यह वक्त है / रबर सा खिचता / सिकुड़ता है
    हाइकुकार की सहृदयता पर्यावरण संरक्षण के प्रति भी झलकती है | देखें एक हाइकु जिसमें एक पेड़ की महत्ता को वह किस प्रकार दर्शाता है –
नीम हकीम / मत समझो नींम / बड़ा हकीम
    जब कोई हाइकुकार प्रकृति का मानवीकरण करते हुए अपना हाइकु रचता है तब वह हाइकु जीवंत हो उठता है और अति-विशिष्ट बन जाता है | देखें ऐसे ही दो हाइकु जो वर्मा जी की लेखनी से निसृत हुए हैं ---
सारे गाँव पे / रखता है नज़र / बूढा दरख़्त
माटी वन्दना / समर्पण में झरा / हर सिंगार
     हिन्दू धर्म में वर-वधू का परिणय-सूत्र कच्चे धागों का बंधन कहलाता है, लेकिन इन कच्चे धागों में बंध कर पति-पत्नी सम्पूर्ण जीवन काट देते हैं; अर्थात, कच्चे धागों में बंधा यह रिश्ता इतना मज़बूत होता है की आसानी से तोड़ा भी नहीं जा सकता | तभी तो वर्माजी यह हाइकु विशिष्ट बन पडा है | ---
रिश्तों की डोर / मज़बूती से बंधी / कच्ची ही सही
    कवि, व्यंग्यकार और चिन्तक डा. सुरेन्द्र वर्मा, ज़ाहिर है, एक अच्छे हाइकुकार भी हैं | ‘दहकते पलाश’ इनका तीसरा हाइकु-संग्रह है | इस कृति में ग्यारह सोदोका और २२ तांका भी संग्रहीत हैं | ३५५ हाइकु में से अनेकों हाइकु बहुत अच्छे बन पड़े हैं | निम् हाइकुओं का रसास्वादन लीजिए –
ये ज़लज़ला / न विज्ञान न कला / न फलसफा
जंगल कटे / जंगलीपन बढ़ा / कैसा विकास
कंधे न मिले / ज़रूरत के वक्त / तटस्थ रहे
भोर का तारा / जगाके जग को / डूबा बेचारा
     इस पुस्तक में निम्न दो हाइकु ऐसे संग्रहीत हो गए हैं जो दाल में कंकड़ी का अहसास कराते हैं | -
चांदनी रात में / नाव में हमदोनों  / तरंगें साथ
खारा जल / आँखों के सागर में / कौन पी गया ?
     पहले हाइकु में प्रथम पंक्ति में पांच की जगह ६ वर्ण हैं; दूसरे हाइकु में चार ही वर्ण रह गए हैं | प्रूफ रीडिंग में असावधानी की वजह से संभवत: ऐसा हुआ है | इस पुस्तक के कलेवर में अच्छे अच्छे हाइकु सहेजे गए हैं | पाठक इन्हें पढ़कर अवश्य ही अपने को आनंदित महसूस करेगा |
    मैं डा. सुरेन्द्र वर्मा जी के स्वस्थ और सुखमय जीवन की कामना करता हूँ और उनसे एक और नई हाइकु कृति की आशा करता हूँ |
                                                 --संतोष कुमार सिंह (कवि एवं बाल साहित्यकार )
बी ४९, मोटी कुञ्ज एक्स्टेन्शन, मथुरा
मो. ९४५६८८२१३१


  

            (दहकते पलाश, डा. सुरेन्द्र वर्मा, अयन प्रकाशन , नई दिल्ली , १९१६ , पृष्ठ १०४ , मूल्य रु. २२०/- केवल )
                                                            मनोज सोनकर

       कुछ हाइकु सुन्दर हैं---
लपेटे रही
कोहरे की चादर
बेचारी धूप      (पृष्ठ, १३)
     धूप का मानवीकरण प्रभावशाली है |
कितनी पीर
पी गया पर्वत
धाराएं फूटीं        (पृष्ठ १४ )
       अच्छी कल्पना है |
एकांत मिला
खुल गए किवाड़
भीतर झांका          (पृष्ठ ५९)
         सचमुच एकांत में ही आदमी अपने आप से मिलता है |
प्रेम वंचित
मरुस्थल में नर
सूखे वृक्ष सा          (पृष्ठ ६२)
          प्रेम हीन के लिए सूखे वृक्ष का उपमान सटीक है |
एक टीस सी
चूर चूर रिश्तों की
चुभती रही            (पृष्ठ ६६)
          सचमुच खंडित सम्बन्ध त्रासद होते हैं |
          तांका और सेदोका साधारण हैं | हाइकु अभिधात्म हैं | लक्षणा और व्यंजना का भी प्रयोग होना चाहिए |
                                                                                               -मनोज सोनकर , मुम्बई | दिनांक १४ १० १६ |

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हाइकु संग्रह -डॉ सुरेंद्र वर्मा

(पुस्तक समीक्षा )

सुशील शर्मा

किसी प्रतिष्ठित साहित्यकार की लेखनी की गहराई को समझने के लिए पारखी बुद्धि और सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ सामाजिक समझ अत्यंत आवश्यक है।डॉ सुरेंद्र वर्मा के हाइकु संग्रह की समीक्षा  सन्दर्भ में उक्त बात को मैंने अपनी सीमान्त मेधा में विशेष स्थान दिया है। मैंने कुछ दिनों पहले प्रदीप कुमार दाश "दीपक "के संपादन में प्रकाशित हाइकु संग्रह "झाँकता चाँद " की समीक्षा लिखी थी। उस समीक्षा से डॉ. सुरेंद्र वर्मा बहुत प्रभावित हुए उन्होंने दूरभाष पर आदेशित किया कि  उनके हाइकु संग्रह 'दहकते पलाश' की समीक्षा मैं लिखूं। ये मेरे लिए सौभाग्य की बात है की ऐसे मूर्धन्य कवि ,व्यंगकार और चिंतक व्यक्तित्व के कृतित्व की समीक्षा लिख कर मैं अपने आप को गौरवान्वित महसूस कर रहा हूँ। 


डॉ सुरेंद्र वर्मा जैसे मूर्धन्य साहित्यकार का यह हाइकु संग्रह"दहकते पलाश"जब मेरे हाथ मे आया तो प्रथम दृष्टया पढ़ने के उपरांत मुझे इसमें कुछ विशेष नजर नहीं आया।लेकिन जब इसको दूसरीबार पढ़ा तो इसमें संग्रहीत हाइकु कविताओं की गहराइयों ने मुझे आंदोलित किया और उनका अमिट प्रभाव मेरे हृदयस्थल पर अंकित हो गया।
हिन्दी साहित्य का 20 वीं सदी का इतिहास विभिन्न विधाओं के सृजन,विदेशी विधाओं के प्रभाव और उनके विरोध और हिंदी साहित्य में उनकी स्वीकृति एवं उन्हें आत्मसात करने का काल रहा है। ऐसी विधाओं का इसलिए विरोध हुआ कि वो हिंदी साहित्य को नुकसान पहुंचाएंगी और हमारी जो मौलिक और सास्वत विधाएं है वो समय के गर्त में समा जाएंगी।लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ।और अंत मे हिन्दी साहित्य ने उन्हें खुले मन से स्वीकार किया।
इन्ही विधाओं में से हाइकु कविताएं भी हैं।हाइकु 5-7-5 के वर्णक्रम में 17 आक्षरिक त्रिपदकि छंद है।जिसमे अभिव्यक्ति की गहनतम गहराई समावेशित होती है। हम अभिव्यक्ति की बात करते हैं, तो अनुभूतियाँ उसके पार्श्व से स्वमेव झाँकने लगती हैं। और मनोहारी बिम्बों का हृदयस्पर्शी सृजन हाइकु कविताओं के रूप में पुष्पित और पल्लवित होने लगता है।
डॉ सुरेंद्र वर्मा की हाइकु कविताओं में जीवन के विभिन्न आयामों के बिम्बों का स्पष्ट परिलक्षण है।आज जीवन में छोटे-छोटे सत्यों, अनुभूतियों तथा संवेदनाओं का व्यापक संसार हमारे चारों ओर घूम रहा है। डॉ सुरेंद्र वर्मा ने  इन जीवन-सत्यों की एक कुशल चित्रकार की भांति अपनी हाइकू कविताओं में उकेरा है।
आज के साहित्यकार की सबसे बड़ी चुनौती जीवन के सुख दुख, लाभ हानि,संघर्ष,जिजीविषा,जीवन यथार्थ के साथ साथ मनोविकार विसंगति,विद्रूपता,सामाजिक और आर्थिक सरोकारों को अपने साहित्य में चित्रित करना है।इसमें बहुत कम साहित्यकार सफल हुए है।जिसमे से एक नाम डॉ सुरेंद्र वर्मा का है।
डॉ सुरेंद्र वर्मा ने  देश, समाज, राजनीति, दर्शन, अध्यात्म, प्रकृति, शिक्षा, साहित्य, कला, श्रृंगार, आदि अनेक विषयों पर हाइकु एवम सेनरियू कविताएं रचीं है जो कालजयी श्रेणी की हैं।
समाज की आंतरिक कुरीतियों एवम राजनीतिक विषमताओं पर आपने अपने हाइकु कविताओं के माध्यम से करारा प्रहार किया है।आपकी सशक्त हाइकु रचनाओं में प्रकृति की अनुगूंज,मानव मन के विषाद और हर्ष के बिम्ब स्पष्ट प्रतिबिम्बित हैं।
डॉ सुरेंद्र वर्मा के इस हाइकु संग्रह के कुछ सर्वश्रेष्ठ हाइकु जिन्होंने मेरे मन को आंदोलित किया है की समीक्षा प्रस्तुत है-
*1.कितनी पीर/पी गया है पर्वत/धाराएं फूटी।*
मनुष्य के दर्द,दुख,विषमताओं को प्रतिबिंबित करती हाइकु कविता।
*2.सारे गांव पे/रखता है नजर/बूढा दरख़्त।*
समाज मे वृद्ध व्यक्तियों के स्थान और उपयोगिता को इंगित करता हाइकु।
*3.धूसर पौधे/वर्षा जल में धुले/नए के नए।*
समय के पुनरागमन का सुंदर बिम्ब प्रस्तुत करती हाइकु कविता।
*4.गुलमोहर/सहता रहा ताप/हंसता रहा।*
गुलमोहर पेड़ के माध्यम से मानवीय जीवन की सहनशीलता को दर्शाता हाइकु।
*5.जलाते नहीं/दहकते पलाश/रंग भरते।*
जीवन के सकारात्मक पहलू को उजागर करता हाइकु।
*6.दृष्टि विहीन/सांसद और नेता/मर्यादा हीन।*
भारतीय राजनीति पर सटीक व्यंग करता सेनरियू।
*7.कैसी संस्कृति/शिक्षा हुई दुकान/धर्म अधर्म।*
शिक्षा की दुर्व्यवस्था को उकेरता सेनरियू।
*8.दाम चुकाओ/मूल्य तक बिकते हैं/बाजार विच।*
वर्तमान वैशविक बाज़ारीकरण की विषमताओं को रेखांकित करता सेनरियू।
*9.हिमालय के/ उतुंग शिखर सा/ मन हमारा।*
मनुष्य के अंदर संकल्पों का दीया जलाता श्रेष्ठ हाइकु।
*10.दीप ने कहा /लड़ो अंधकार से /यही संकल्प।*
दीपक के द्वारा मानव मन को संकल्पित करता उच्च कोटि का हाइकु।
*11.स्वांग रचते /क्षद्म रूप धरते/ स्वप्न निराले।*
सपनों की निराली दुनिया को सपनीला बनाता श्रेष्ठ हाइकु।
*12.संभावनाएं /मरती नही कभी/ चिर जीवित।*
मनुष्य के उर अंतर में आशा का संचार करता उच्चकोटि का हाइकु।
*13.मौन मुखर/अंतर की आवाज़/सुनो गौर से।*
अपने अंतस में स्वयं को खोजती श्रेष्ठ हाइकु कविता।
डॉ वर्मा के इस संग्रह में तांका और सेदोका को भी स्थान दिया गया है।ये दोनों विधाएं हाइकु कविता का ही विस्तृत रूप हैं।
*14.वही तारीख /बार बार लौटती /काल का क्रम /बढ़ता आगे नहीं /लाचार है समय।*
जीवन मे समय की पुनरावृत्ति को रेखांकित करता तांका।
*15.धरती तुम/सतह पर सख्त/अंदर नीर भरी/कितने आंसू/रखे सुरक्षित हो/कोई नही जानता।*
धरती के माध्यम से नारी जाति की सहनशीलता को प्रतिबिंबित करता श्रेष्ठ सेदोका।
आधुनिक हाइकु के जनक बाशो ने हाइकु लेखन की उत्कृष्टता के बारे में कहा कि अगर कोई कवि अपने जीवन काल मे तीन उत्कृष्ट हाइकु लिखता है तो वह कवि की श्रेणी में आ जाता है और अगर उसने पांच उत्कृष्ट हाइकु लिखे तो वह महाकवि कहलाने योग्य है।
इस कथन का भावार्थ यह है कि श्रेष्ठ हाइकु लिखना आसान काम नही हैं।श्रेष्ठ हाइकु लिखने के लिए आपको संवेदनाओं और अभिव्यक्ति के गहन समंदर में उतरना होगा तभी उच्चकोटि के हाइकु का सृजन संभव है।
आजकल सोशल मीडिया और अंतरजाल पर जो अधिकांश हाइकु लिखे जा रहे हैं वह सिर्फ हाइकु की भौतिक संरचना की ही पूर्ति है।हाइकु के प्राण गहन अभिव्यक्ति का उनमे नितांत अभाव झलकता है। इसका मुख्य कारण है कि प्रकाशित हाइकु संग्रहों की समीक्षा बहुत कम लिखी जा रही है।

इस हाइकु संग्रह में मुझे एक कमी बहुत खल रही है।इस संग्रह के हाइकु विषयानुसार क्रम में नही हैं।दूसरा विषय और भावों का क्रम भी निश्चित नही हैं।इसकारण से पाठक की तन्मयता टूटती है।इसके अलावा इस संग्रह में मुझे और कोई कमी नजर नही आई।
पुस्तक का आवरण पृष्ठ आकर्षक है।छपाई उच्चकोटि की है।इसके लिए अयन प्रकाशन के आदरणीय भूपाल जी सूद बधाई के पात्र हैं।


हाइकु कविता का सृजन सामान्य प्रक्रिया नही है।मनुष्य और इस जीवन से संबंधित समस्त भावों की गहन अभिव्यक्ति का 17 वर्णो में प्रतिबिम्बन आसान नही है ।हाइकु का सृजन गहन संवेदनाओं का जीना है।अपनी आत्मा ,मन और संवेदनाओं को मानवता और प्रकृति से जोड़कर जो साहित्यकार सृजन करता है वही साहित्य कालजयी होता है।
डॉ सुरेंद्र वर्मा ने अपने जीवनकाल में जिन संवेदनाओं को जिया है उनका निचोड़ इस हाइकु संग्रह की हाइकु तांका और सेदोका कविताओं में प्रतिबिम्बित है।
एक कवि,दार्शनिक,चिंतक अध्यापक और चित्रकार की सम्पूर्ण संवेदनाओं को आवाज़ देता उनका यह संग्रह"दहकते पलाश" हिंदी साहित्य की धरोहर है।

दहकते पलाश
लेखक-डॉ सुरेंद्र वर्मा
कीमत-220 रुपये
प्रकाशक-अयन प्रकाशन
महरौली नई 






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-    प्रदीप कुमार दाश “दीपक” (मो. ७८२८१०४१११) 


    

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