शनिवार, 18 मार्च 2017

डा. सुरेन्द्र वर्मा : हाइकु ग्रीष्म ऋतू


ऋतुचक्र  (२)ग्रीष्म
 डा. सुरेन्द्र वर्मा

बढ़ता गुस्सा
पुष्प भी लाल-पीले
गर्मी सी गर्मी

नल / चिड़िया
दोनों ही सूखे कंठ
प्यासे आकंठ

चिड़िया प्यासी
नल के मुंहपर
चोंच मारती

तपे आग में
अमलतास टेसू
उतरे खरे

बेला का फूल
डाली पे हरा-भरा
छूटे ही झरा

मीठे-कड़वे
जीवन अनुभव
पकी निबौली

रजनी गंधा
रात भर महकी
धन्य जीवन

लता बेला की
गोद में फूल लिए
आनंदमयी

पोखर सूखा
आब ही नहीं रही
तला चटका  

सूखी पत्तियाँ
आश्रय तलाशतीं
बुहारी गई

सो गई वो
कब तक जागती
पंखा झलते

छन के आए
चितकबरी धूप
पेड़ छननी

पानी के बिना
तन तरबतर
हलक सूखा

गर्म हवाएं
धरती पे निढाल
हांपता कुत्ता

गुलमोहर
गर्मी में लाल-पीले
अमलतास

भरे चिलम
सूर्य लगाए दम
उगले आग

गर्मी के दिन
तन पे अलाइयां
बो गई धूप

मारे गरमी
नींद न आई रात
तारों के साथ

पेड़ पत्तियाँ
छान रही हैं धूप
थोड़ी राहत

बदलते हैं
कर्बट पे कर्बट
अकुलाहट    

होने को भूरी
वृक्ष तले पसरी
गोरांगी धूप

सूखने न दें
नदी जो भिगोती है
हमारा मन

उठी लपटें
आग लगी वन में
पलाश फूला

कहाँ मिलेगा
घाट घाट है प्यासा
तोड़ प्यास का

लुटा के पानी
प्यास बुझाए  -घट
प्यासा का प्यासा

देखे ऊपर
दरकती धरती
नभ बेदर्दी

पुरवइया
राहत तपन से
तेरा पैगाम !

चैत में जेठ
तपती दोपहरी
सुचेतावनी

कोयल रट
चुप हो गई कुहू
उत्तर न आया

वृक्ष विशाखा
हुआ छाया विहीन
ठूँठ सा खड़ा

चिड़िया प्यासी
कुत्ता पी गया पानी
दर्द कहानी

उफ़! गरमी
संतरे तरबूज
वाह! गरमी !

सूर्य धरा पे
रसातल में पानी
दोनों अतृप्त
   
ताना मारते
खिलखिलाते फूल
गर्मी बेशर्म

सह न पाई
बरसाती नदियाँ
श्राप गरमी का

सूर्य का ताप
सह न पाई धरा
दरक गई

चिड़िया प्यासी
हुआ न गुस्सा शांत
पिपासा मन

आँखों में फांस
तालाब में दरारें
प्यास ही प्यास

पानी गायब
कुँए का तालाब का
सूनी आँख का

कमरे बंद
दोपहर खामोश
सर्वत्र मौन

अतृप्त मन
प्यासा ही लौट गया
गागर खाली

कोई बताए
कहाँ छिपा है जल ?
प्राण पिपासे

शिखर पर
सूरज के तेवर
धरा लाचार
 
कोई भी जल
बुझा नही पाया,ये
अबूझ प्यास

सर पे सूर्य
सिमटी, पैरों  पड़ी
बेचारी छाँव

प्रतीक्षा वर्षा
तपती दोपहर
विरह-अग्नि  

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