ऋतु चक्र (१)वसंत और पतझड़
डा. सुरेन्द्र वर्मा
फूलों से ढंके
कुछ हुए निर्वस्त्र
वृक्ष वासंती
जगाए दर्द
करे कनबतियां
हवा फागुनी
वासंती हंसी
दिन कमल और रात वेला सी
टूटे बंधन
टूटी नहीं प्रतीक्षा
माह फागुन
तुम्हारा आना
दो पल रुक जाना
दो दो वसंत
ढोल मंजीरे
कोयल बुलबुल
स्वागत फाग
हंसती रही
माधवी दिन-रात
माधो वसंत
फगुनहट
दखिनैया बयार
अकुलाहट
फूले पलाश
कोयल बोले बैन
चैत उत्पाती
अंग प्रत्यंग
मची झुरझुरी सी
कोयल बोली
खेत गेंदे का
उठाता है लहरें
पीली सुगंध
पहने साड़ी
सरसों खेत खडी
ऋतु वासंती
आम्र-मंजरी
आमोदित वसंत
प्रतीक्षारत
रंगबिरंगा
बिछा हुआ कालीन
हरित धरती
अकथनीय
अक्षर हलंत सी
कथा वसंत
झड़ रहे हैं
पत्र पतझड़ में
टिक सकोगे ?
जीर्ण पत्र था
हलके से झोंके में
टूटा बेबस
वृक्ष पे बचा
एक ही पत्र शेष
एकांत भोग
वसंतोत्सव
लहराते दुपट्टे
पीली सरसों
डीठ कामना
क्षण भर बहकी
तितली उडी
पीयरे खेत
ज़र्द पड़ गया सूर्य
आभा वसंत
झरते पत्र
करता अगवानी
फूल केक्टस
पतझर है
आहट वसंत की
क्यों उदास हो ?
पर्व मिलन
प्रिया लगाए आस
फागुन मास
चुप थी घाटी
जाग गई सहसा
चिड़िया बोली
सूखी पत्तियाँ
आश्रय तलाशतीं
बुहारी गईं
अपशगुनी
बैठा है सूखी डाल
काक अकेला
गिरते पत्र
निरुपाय सा वृक्ष
खड़ा देखता
जीर्ण पत्र को
बन जाने दो खाद
मूल्यवान वो
डालियों पर
झांकते पत्ते नए
टूटते सूखे
फूल से तोते
बाहों पर झूलते
शाख सेंमल
उड़ी लपटें
आग लगी जंगल
पलाश फूला
हर्षा अशोक
करती जो नर्तकी
पद प्रहार
ऋतु राजन
स्वागत है आपका
आएं पधारें
अनंग राज
नए पात पुष्पों से
राज तिलक
वसंत वात
रंग स्पर्श मधुर
आनंद राग
उम्र दराज़
एक एक पत्ते को
झड़ते देखा
फूला पलाश
अम्बवा बौरा गया
फैली सुवास
सकल वन
फूल रही सरसों
सघन वन
अकेला पत्र
अटका है डाल पे
राह देखता
जलाते नहीं
दहकते पलाश
रंग भरते
फूली सरसों
रंग गई नारंगी
गेंदा बौराया
फूलों की सेज
पक्षियों का संगीत
रीझा वसंत
आया वसंत
चाँद हंसा,सूरज
मुसकराया
गूँजा आँगन
बड़े दिनों के बाद
बोली गौरैया
सोया था सूर्य
उठा इठलाता सा
प्रात वसंत
तुम क्या आए
मिटे मैल मन के
गायब शिकवे
झड़ते देखा
एक एक पत्ते को
तो फूल खिले
डाली पलाश
रक्ताभ हुई, आया
वसंत राज
रुठी थी कली
वासंती सुगंध से
भरी तो खिली
वसंत आया
कोई न जान पाया
देखा सबने
चोरी से छुआ
आया वो दबे पाँव
पाजी वसंत
कोयल बोली
मौन हो गईं मानो
सभी दिशाएं
मुनि संतों का
मौन हुआ वाचाल
कोयल बोली
कोयल बोली
कनुप्रिया की भरी
रीती सी झोली
सन्नाटा कुछ
और हुआ गहरा
कोयल बोली
साजन मेरा
कहाँ ढूँढूँ गुलाब
गेंदा ही सही
मारो ना, करे
करेजवा पे चोट
रसिक गेंदा
चटक पीला
गेंदा फूल साजन
महके मन
न कोई नाज़
न ही कोई नखरा
गेंदा सबका
गेंदा सा गेंदा
लदा पडा खेत में
पी रंग पीला
गेदे की माल
गेंदा बंदनवार
सर्व-स्वीकार
रंग ही रंग
मेरे चारों तरफ
होली के रंग
तन भिगोते
सराबोर करते
मन के रंग
उसके रंग
न छूटे न छुटाए
चटक रंग
गोरी के गाल
गोरा हुआ गुलाल
डोरा आँखों का
अमृत जल
सदा रहे बहता
बहाओ मत
दिन होली का
बंधी तन-मन की
गाँठ खोल दो
त्याग अहं को
होली के दिन चार
खेलो, हँस लो
सूखने न दें
नदी जो भिगोती है
हमारा मन
कुछ तरल
सरिता की भाँति है
मन भीतर
मूर्ख बुलाता
मुझे मार, आ बैल
एक अप्रैल
तर्क वक्रता
तर्क करती रिश्ते
भली मूर्खता
मैं चौंक गया
खटका दरवाज़ा
वासंती हवा
खड़ी सामने
होली तेरे द्वार पे
सामने तो आ
एक चुम्बन
बसंत के गालों पे
गुल-मुहर
झूमने लगीं
गेहूँ की बालियाँ
हवा निहाल
पकी फसल
बालियों से झांकते
रोशन दाने
झूम के आया
आँगन में बसंत
राहग गुलाल
झांझ मंजीरे
होली का हुड़दंग
मन मलंग
तीन सखियाँ
जूही चम्पा चमेली
तनहा गुलाब
घुली जो श्वास
कान्हा की मुरली में
फूटा संगीत
राधा रानी ने
मारी जो पिचकारी
रूठे कन्हाई
रंग बरसे
ज्यों पलाश दहके
दिन फागुन
गीतों में बसा
बस, प्यार ही प्यार
मीठी बयार
तन मन से
आरोह अवरोह
स्वास फागुनी
प्रसन्न मन
तोड़े रति-बंधन सब
कान्हा की वंशी
फूलों के द्वारे
मंडराते भंवरे सब
कली शरमाई
होली में झूमें
महुआ कचनार
बौरी बयार
धरे न धीर
कूक कोयलिया की
जगाती पीर
रंगों रे रंग
केसरिया सुगंध
कहाँ हो कन्त
महका बौर
चू पड़ा महुआ
रंग गुलाल
नूतन हेतु
टहनी से उतरे
बुज़ुर्ग पात
कोई न रोया
आंसुओं से टपके
निराश पत्ते
पवन संग
झर झर नाचते
गिरते पत्ते
डा. सुरेन्द्र वर्मा
फूलों से ढंके
कुछ हुए निर्वस्त्र
वृक्ष वासंती
जगाए दर्द
करे कनबतियां
हवा फागुनी
वासंती हंसी
दिन कमल और रात वेला सी
टूटे बंधन
टूटी नहीं प्रतीक्षा
माह फागुन
तुम्हारा आना
दो पल रुक जाना
दो दो वसंत
ढोल मंजीरे
कोयल बुलबुल
स्वागत फाग
हंसती रही
माधवी दिन-रात
माधो वसंत
फगुनहट
दखिनैया बयार
अकुलाहट
फूले पलाश
कोयल बोले बैन
चैत उत्पाती
अंग प्रत्यंग
मची झुरझुरी सी
कोयल बोली
खेत गेंदे का
उठाता है लहरें
पीली सुगंध
पहने साड़ी
सरसों खेत खडी
ऋतु वासंती
आम्र-मंजरी
आमोदित वसंत
प्रतीक्षारत
रंगबिरंगा
बिछा हुआ कालीन
हरित धरती
अकथनीय
अक्षर हलंत सी
कथा वसंत
झड़ रहे हैं
पत्र पतझड़ में
टिक सकोगे ?
जीर्ण पत्र था
हलके से झोंके में
टूटा बेबस
वृक्ष पे बचा
एक ही पत्र शेष
एकांत भोग
वसंतोत्सव
लहराते दुपट्टे
पीली सरसों
डीठ कामना
क्षण भर बहकी
तितली उडी
पीयरे खेत
ज़र्द पड़ गया सूर्य
आभा वसंत
झरते पत्र
करता अगवानी
फूल केक्टस
पतझर है
आहट वसंत की
क्यों उदास हो ?
पर्व मिलन
प्रिया लगाए आस
फागुन मास
चुप थी घाटी
जाग गई सहसा
चिड़िया बोली
सूखी पत्तियाँ
आश्रय तलाशतीं
बुहारी गईं
अपशगुनी
बैठा है सूखी डाल
काक अकेला
गिरते पत्र
निरुपाय सा वृक्ष
खड़ा देखता
जीर्ण पत्र को
बन जाने दो खाद
मूल्यवान वो
डालियों पर
झांकते पत्ते नए
टूटते सूखे
फूल से तोते
बाहों पर झूलते
शाख सेंमल
उड़ी लपटें
आग लगी जंगल
पलाश फूला
हर्षा अशोक
करती जो नर्तकी
पद प्रहार
ऋतु राजन
स्वागत है आपका
आएं पधारें
अनंग राज
नए पात पुष्पों से
राज तिलक
वसंत वात
रंग स्पर्श मधुर
आनंद राग
उम्र दराज़
एक एक पत्ते को
झड़ते देखा
फूला पलाश
अम्बवा बौरा गया
फैली सुवास
सकल वन
फूल रही सरसों
सघन वन
अकेला पत्र
अटका है डाल पे
राह देखता
जलाते नहीं
दहकते पलाश
रंग भरते
फूली सरसों
रंग गई नारंगी
गेंदा बौराया
फूलों की सेज
पक्षियों का संगीत
रीझा वसंत
आया वसंत
चाँद हंसा,सूरज
मुसकराया
गूँजा आँगन
बड़े दिनों के बाद
बोली गौरैया
सोया था सूर्य
उठा इठलाता सा
प्रात वसंत
तुम क्या आए
मिटे मैल मन के
गायब शिकवे
झड़ते देखा
एक एक पत्ते को
तो फूल खिले
डाली पलाश
रक्ताभ हुई, आया
वसंत राज
रुठी थी कली
वासंती सुगंध से
भरी तो खिली
वसंत आया
कोई न जान पाया
देखा सबने
चोरी से छुआ
आया वो दबे पाँव
पाजी वसंत
कोयल बोली
मौन हो गईं मानो
सभी दिशाएं
मुनि संतों का
मौन हुआ वाचाल
कोयल बोली
कोयल बोली
कनुप्रिया की भरी
रीती सी झोली
सन्नाटा कुछ
और हुआ गहरा
कोयल बोली
साजन मेरा
कहाँ ढूँढूँ गुलाब
गेंदा ही सही
मारो ना, करे
करेजवा पे चोट
रसिक गेंदा
चटक पीला
गेंदा फूल साजन
महके मन
न कोई नाज़
न ही कोई नखरा
गेंदा सबका
गेंदा सा गेंदा
लदा पडा खेत में
पी रंग पीला
गेदे की माल
गेंदा बंदनवार
सर्व-स्वीकार
रंग ही रंग
मेरे चारों तरफ
होली के रंग
तन भिगोते
सराबोर करते
मन के रंग
उसके रंग
न छूटे न छुटाए
चटक रंग
गोरी के गाल
गोरा हुआ गुलाल
डोरा आँखों का
अमृत जल
सदा रहे बहता
बहाओ मत
दिन होली का
बंधी तन-मन की
गाँठ खोल दो
त्याग अहं को
होली के दिन चार
खेलो, हँस लो
सूखने न दें
नदी जो भिगोती है
हमारा मन
कुछ तरल
सरिता की भाँति है
मन भीतर
मूर्ख बुलाता
मुझे मार, आ बैल
एक अप्रैल
तर्क वक्रता
तर्क करती रिश्ते
भली मूर्खता
मैं चौंक गया
खटका दरवाज़ा
वासंती हवा
खड़ी सामने
होली तेरे द्वार पे
सामने तो आ
एक चुम्बन
बसंत के गालों पे
गुल-मुहर
झूमने लगीं
गेहूँ की बालियाँ
हवा निहाल
पकी फसल
बालियों से झांकते
रोशन दाने
झूम के आया
आँगन में बसंत
राहग गुलाल
झांझ मंजीरे
होली का हुड़दंग
मन मलंग
तीन सखियाँ
जूही चम्पा चमेली
तनहा गुलाब
घुली जो श्वास
कान्हा की मुरली में
फूटा संगीत
राधा रानी ने
मारी जो पिचकारी
रूठे कन्हाई
रंग बरसे
ज्यों पलाश दहके
दिन फागुन
गीतों में बसा
बस, प्यार ही प्यार
मीठी बयार
तन मन से
आरोह अवरोह
स्वास फागुनी
प्रसन्न मन
तोड़े रति-बंधन सब
कान्हा की वंशी
फूलों के द्वारे
मंडराते भंवरे सब
कली शरमाई
होली में झूमें
महुआ कचनार
बौरी बयार
धरे न धीर
कूक कोयलिया की
जगाती पीर
रंगों रे रंग
केसरिया सुगंध
कहाँ हो कन्त
महका बौर
चू पड़ा महुआ
रंग गुलाल
नूतन हेतु
टहनी से उतरे
बुज़ुर्ग पात
कोई न रोया
आंसुओं से टपके
निराश पत्ते
पवन संग
झर झर नाचते
गिरते पत्ते
अद्भुत , श्रेष्ठ
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