शनिवार, 30 अप्रैल 2016

(4) अप्रैल माह के हाइकु

हँसा के हँस
मूर्ख बन के रह
मज़े में बस
       -राजीव निगम राज
पत्थर दिल
संकीर्ण हुई सोच
बढ़ा विज्ञान
        -कैलाश कल्ला
जल में ज़िंदा
बाहर मरे  मीन
पर्दानशीन
       -आरके भारद्वाज

२.४.१६
चढ़ न सका
सफलता की सीढी
लंगडा धैर्य
    -अभिषेक जैन
मापें सुकून
बीते द्वंद्व  से नहीं
मन तृप्ति से
       -प्रियंका वाजपेयी
पारदर्शी हों
शीशे सा साफ़ दिखें
कहे आईना
       -आर के भारद्वाज
बोलता फूल
प्रभु मैं हूँ आपकी
चरण-धूल
        आर के भारद्वाज

३.४.१६

गिरी बरखा
बजा जलतरंग
मेरे आँगन
       -राजीव गोयल
बुने जो गीत
दर्द की सलाई से
गाता ही रहा
       -जितेन्द्र वर्मा
जीवन यात्रा
थक कर मनुज
सोए कब्र में
       -अमन चाँदपुरी

४.४.१६
आँखों में तेरे
लुका छिपी खेलती
मानस मीणा
        -प्रियंका वाजपेयी
खो गई आत्मा
रह गया शरीर
बिके बाज़ार
      -जितेन्द्र वर्मा
खींची दीवारें
बंटता गया घर
बची दीवारें
     -कैलाश कल्ला
गंगाजल सी
बेटी मोक्ष-दायिनी
शक्ति स्वरूपा
       -प्रीति दक्ष
काली रात है
सूरज सो गया है
चाँद डटा है
      -अमन चांदपुरी

५.४.१६
पूनो का चाँद
उतरती नभ से
चांदनी रात
       -राजीव गोयल
दर्द है बना
मलहम दर्द का
दर्द है दवा
      -जितेन्द्र वर्मा

६.४.१६
दिया तो जला
अन्धकार न मिटा
मन था बुझा
        -प्रियंका वाजपेयी
हरा न पाईं
सांसारिक इच्छाएं
सन्यासी मन
       -राजीव गोयल
देह का अंत
ख़त्म हुए अध्याय
पुस्तक बंद
       -अभिषेक जैन
फटी बिवाई
लगाओ वर्षा लेप
धरा के पैर
       -राजीव गोयल

७.४.१६
जी ले ज़िंदगी
नहीं मिले दोबारा
खुशी ज़िंदगी
        -जितेन्द्र वर्मा
पलटा नहीं
पुकारती रही माँ
कैसा चिराग ?
       -प्रियंका वाजपेयी
चाँद कलश
छलकती चांदनी
नहाती रात
      -राजीव गोयल
पूनों को देख
लहरों में खो गया
प्रेमी समुद्र
      -कैलाश कल्ला

८.४.१६
भुगते सज़ा
दूसरों के पापों की
मासूम धरा
      -राजीव गोयल

९.४.१६
दिखती साफ़
बुज़ुर्ग चेहरों पे
वक्त की छाप
        (हाइगा)-राजीव गोयल
कई नाटक
एक साथ देखिए
मंच ज़िंदगी
       -जितेन्द्र वर्मा
लू के हंटर
रवि ने बरसाए
तड़पी धरा
       -राजीव गोयल
नयनों में आस
अन्तरंग में पीर
बूढा शरीर
         -अभिषेक जैन
जाल में फंस
लूटा छटपटाए
जिना कब्ज़े स्त्री
          -विभा श्रीवास्तव
स्याही के संग
भीग गए मधुर
प्रेम के रंग
         -डा, अम्बुजा मलखेडकर

१०.४.१६
छोड़ घोंसला
किधर गया पंछी
पूंछती पत्ती
       -राजीव गोयल
in the name of God
roaming godman
delivering sermons of lust
        -Jitendra Varma

11.4.16
क्यों न पाया
सब पा के सुकून
कुछ तो खोया
        -प्रियंका वाजपेयी
काम गलत
पत्र नहीं पहुंचा
पता नहीं था
        --
मन दुखी है
साईकिल न चली
चैन नहीं है
       -दो-सुखन
       -आर के भारद्वाज

१२'४.१६
कटते पेड़
बनी बहुमंजिले
पंछी बेघर
      कैलाश कल्ला
काटता हूँ मैं
हाइकु की फसल
उगा के शब्द
       -राजीव गोयल

१३.४.१६
उच्च संस्कार
किसने पाया आज
जो हो उद्धार
     -अम्बुजा 'सुवना''
भीषण गर्मी
पेड़ सहते रहे
देने को छाँव  
       -जितेंद्र वर्मा
भोर होते ही
हथगोला उठाए
सूर्य घूमता
      -आर के भारद्वाज
पानी न खिंचा
पतंग भी न उडी
डोर नहीं थी
        (दो सुखन) आरके भारद्वाज
सूर्य शीश पे
छाया भी मांगे छाया
उफ़ ये घाम !
      -प्रियंका वाजपेयी
लिखे सूरज
किरण कलम से
भोर के गान
      -राजीव गोयल

१४.४.२०१६
टंगे ज्यूं तारे
महमहाता बेला
गुंथे त्यूं वेणी
      -विभा श्रीवास्तव
निर्जन वन
भटकते जुगुनू
शापित यक्ष
       -प्रीति दक्ष

१५ ४. १६
बना है वृक्ष
छाँव की धर्मशाला
रुका पथिक
     -अभिषेक जैन `````````````
झील दिखाए
चमकते चाँद  को
पानी हिलाए
      -राजीव निगम 'राज़'
स्मार्ट शहर
बहु स्मार्ट  मकान
घर हैं कहाँ ?
      -जितेन्द्र वर्मा

१६.४.१६
बुनता रहा
साँसों का ताना बाना
झीना अस्तित्व
        -प्रियंका वाजपेयी
इंसा डंसता
इकदूजे को अब
सांप हंसता
         -राजीव निगम 'राज़'
रो भी न सका
देख पंछी का दर्द
ये सूखा नल
      (हाईका) -राजीव गोयल
स्वयं ही प्यासा
तुम्हें कैसे पिलाऊँ
मैं घनरस
       -डा. अम्बुजा  'सुवना'
चुल्बुलों को
बैठाकर पढ़ाती
हमारी शिक्षा
      -पीयूषा

१७.४.१६
सरसों फूली
नशे में धुत झूली
पेर दी गई
       -आर के भारद्वाज
सोना न चाहूँ
सब कुछ ले लो
बस सोने दो
      कैलाश कल्ला
प्यासा बहुत
तालों कुओं का जल
पी गया सूर्य
       -संतोष कुमार सिंह
काम मशीनी
क्यों करता आदमी
होता बेमानी
        -पीयूषा
भीतर आओ
अलख जगाकर
झांको खुद में
       -प्रियंका वाजपेयी

 १८.४.१६
आया चुगने
सूरज राजहंस
ओस के मोती
        -राजीव गोयल
फर्श पे लेटे
वे सुन रहे गीता
गौ-धूली वेला
      -कैलाश कल्ला
चिड़िया प्यासी
मुंडेर पर जल
मांगे तुमसे
      (हाइगा)-प्रीति दक्ष
बिना तपे ही
बारिश व् बहारें
मिलती नहीं
       -पीयूषा

१९.४.१६
दर्द का दर्द
जब देखा न गया
लगाया गले
     -राजीव गोयल
पिघल जाती
समय की धूप से
दुखों की बर्फ
      -संतोष कुमार सिंह
तपे  धूप में
यह दरख्त घने
छातों से तने
       -राजीव गोयल
अलगाव से
बदरंग जीवन
तुम अंजान
      -अम्बूजा "सुवना"
त्रास मिटाए
रेत से स्व झुलसे
मीठा लालमी
       -विभा श्रीवास्तव
समुद्र तपे
बरसात के लिए
आंसू टपकें
       -पीयूषा

२०.४.१६
ढूँढ़ते ठाँव
झुरमुटी डगर
छिलते पाँव
    -विभा श्रीवास्तव
धूप में तेज़ी
पेड़ पसारे हाथ
करने छाँव
      -कैलाश कल्ला
बुद्ध शरण
समंदर सुख का
प्रश्न त्याग का
      -तुकाराम खिल्लारे
कंक्रीट वन
बिजली के तार ही
पंछी के घर
      -राजीव गोयल (हाइगा)
listen carefully
your soul whispers
body doesn't
       -jitendra varma

२१.४ १६
मन अंगना
वक्त की खूँटी पर
टंगी हैं यादें
      -राजीव गोयल
स्वार्थ रचित
हर दृष्टि बाधित
सृष्टि कुंठित
       -राजीव "राज़"
कोने में बस्ता
खिलौने आसपास
ग्रीष्मावकाश
      -अभिषेक जैन

२२. ४. १६
हे बलशाली
कमज़ोर को देना
तुम पौरुष
      -अम्बूजा
कूदी लहर
गिरी मुंह के बल
मिला न चाँद
       -राजीव गोयल

२३.४.१६
सड़कें चौड़ी
दिल हुए तंग
ईश्वर दंग
     -संतोष कुमार सिंह
कोई तो रोता
मेरी बर्बादी पर
मेरा होकर
      -राजीव निगम 'राज'
बाजे पायल
रोता हुआ नैपत्थ्य
हाय ज़िंदगी
      -जितेन्द्र वर्मा
माँल में जूते
सड़क पर किताबें
संस्कृति बिकी
      - आर के भारद्वाज
हाँक ले गया
पवन चरवाह
मेघ रेवड़
      -राजीव गोयल
मिट्टी जमाने
नेता पानी छिड़के
जन तो प्यासा
      कैलाश कल्ला

२४.४.१६
भू पे दरारें
पके चूहे की गंध
फिजा में फैली
   
भू पे दरारें
बिवाई सहलाते
स्व हाथ काँपे

भू पे दरारें
बयाँ न कर पाऊँ
तन तपन
      -विभा श्रीवास्तव

पढो किताब
मर रहे हैं शब्द
लेने दो सांस
      - राजीव गोयल
कई सवाल
उत्तर बस  एक
मानव धर्म
     -जितेन्द्र वर्मा

२५. ४. १६
कभी सुनिए
झकझोरे अंत: को
मौन की गूँज
     -प्रियंका वाजपेयी
धार्मिक स्थल
या पिकनिक स्पाट
भेद मुश्किल
      कैलाश  कल्ला
माँ आँखें लाल
स्नेही कान पकडे
धमाल लाल
       -विभा श्रीवास्तव
अजन्मे भ्रूण
सूखे ने मार दिए
धरा गर्भ में
      -राजीव गोयल

२६.४.१६
रहे हैं झेल
सश्रम कारावास
खेतों में बैल
       -अभिषेक जैन
शादी अधूरी
भोज भी अधूरा ही
भात नहीं था
     -आर की भारद्वाज (दो सुखन)
मृत्यु के बाद
साया, न रहे पास
बहा दे राख
      कैलाश कल्ला

२७.४.१६
तुलसी पौधा
कद-काठी में छोटा
ऊंचा ओहदा
      -अभिषेक जैन
हुई बावरी
सागर की बाहों में
सिमटी गंगा
       -प्रीती दक्ष
दूजी दुनिया
अनजाना पथ है
धुंध के पार
       -प्रियंका वाजपेयी

२८.४.१६
नहीं हो सके
बिना मनुष्य देह
देव भी मुक्त
       -प्रियंका वाजपेयी
प्रभात वेला
सूरज चरवाहा
काम पे चला
       -हाइगा, राजीव गोयल
गो-धूलि  काल
साया से बौना  इंसा
वक्त की बात
       -कैलाश कल्ला

२९.४.१६
तपता सूर्य
सोखता पृथ्वी जल
मनु विकल
      -राजीव निगम 'राज़'
बिछड़ गया
कोई बहुत ख़ास
मन उदास
       -अमन चाँदपुरी
चूनर ओढ़े
दुल्हन का चेहरा
साए में धूप
      -अमन चाँदपुरी
शब्द अर्पण
मन हुआ दर्पण
नया सृजन
       -अमन चांदपुरी
जीने की आस
जबतक है श्वास
मिटे न प्यास
        -कैलाश कल्ला

३०.४.१६
कहीं दूर से
आती है आहट
उम्मीद लिए
      -प्रियंका वाजपेयी
उठा के लाई
ढेर सारे विवाद
खर्चीली जुबां
      -अभिषेक जैन

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शुक्रवार, 1 अप्रैल 2016

ऋतु चक्र  (१)वसंत और पतझड़
डा. सुरेन्द्र वर्मा

फूलों से ढंके
कुछ हुए निर्वस्त्र
वृक्ष वासंती

जगाए दर्द
करे कनबतियां
हवा फागुनी

वासंती हंसी
दिन कमल और                                                                                                                                           रात वेला सी

टूटे बंधन
टूटी नहीं प्रतीक्षा
माह फागुन

तुम्हारा आना
दो पल रुक जाना
दो दो वसंत

ढोल मंजीरे
कोयल बुलबुल
स्वागत फाग

हंसती रही
माधवी दिन-रात
माधो वसंत

फगुनहट
दखिनैया बयार
अकुलाहट

फूले पलाश
कोयल बोले बैन          
चैत उत्पाती

अंग प्रत्यंग
मची झुरझुरी सी
कोयल बोली

खेत गेंदे का
उठाता है लहरें
पीली सुगंध

पहने साड़ी
सरसों खेत खडी
ऋतु वासंती

आम्र-मंजरी                            
आमोदित  वसंत
प्रतीक्षारत

रंगबिरंगा
बिछा हुआ कालीन
हरित धरती

अकथनीय
अक्षर हलंत सी
कथा वसंत
  
झड़  रहे हैं
पत्र पतझड़ में
टिक सकोगे ?

जीर्ण पत्र था
हलके से झोंके में
टूटा  बेबस

वृक्ष पे बचा
एक ही पत्र शेष
एकांत भोग

वसंतोत्सव
लहराते दुपट्टे
पीली सरसों

डीठ कामना
क्षण भर बहकी
तितली उडी

पीयरे खेत
ज़र्द पड़ गया सूर्य
आभा वसंत

झरते पत्र
करता अगवानी
फूल केक्टस

पतझर है
आहट वसंत की
क्यों उदास हो ?

पर्व मिलन
प्रिया लगाए आस
फागुन मास

चुप थी घाटी
जाग गई सहसा
चिड़िया बोली

सूखी पत्तियाँ
आश्रय तलाशतीं
बुहारी गईं

अपशगुनी
बैठा है सूखी डाल
काक अकेला

गिरते पत्र
निरुपाय सा वृक्ष
खड़ा देखता

जीर्ण पत्र को                                                            
बन जाने दो खाद
मूल्यवान वो  

डालियों पर
झांकते पत्ते नए
टूटते  सूखे

फूल से तोते
बाहों पर झूलते
शाख सेंमल

उड़ी लपटें
आग लगी जंगल
पलाश फूला

हर्षा अशोक
करती जो नर्तकी
पद प्रहार

ऋतु राजन
स्वागत है आपका
आएं पधारें

अनंग राज
नए पात पुष्पों से
राज तिलक

वसंत वात
रंग स्पर्श मधुर
आनंद राग

उम्र दराज़
एक एक पत्ते को
झड़ते देखा

 फूला पलाश
अम्बवा बौरा गया
फैली सुवास

सकल वन
फूल रही सरसों
सघन वन

अकेला पत्र
अटका है डाल पे
राह देखता

जलाते नहीं
दहकते पलाश
रंग भरते

फूली सरसों
रंग गई नारंगी
गेंदा बौराया

फूलों की सेज
पक्षियों का संगीत
रीझा वसंत

आया वसंत
चाँद हंसा,सूरज
मुसकराया

गूँजा आँगन
बड़े दिनों के बाद
बोली गौरैया  

सोया था सूर्य
उठा इठलाता सा
प्रात वसंत

तुम क्या आए
मिटे मैल मन के
गायब शिकवे

झड़ते देखा
एक एक पत्ते को
तो फूल खिले

डाली पलाश
रक्ताभ हुई, आया
वसंत राज

रुठी थी कली
वासंती सुगंध से
भरी तो खिली

वसंत आया
कोई न जान पाया
देखा सबने

चोरी से छुआ
आया वो दबे पाँव
पाजी वसंत

कोयल बोली
मौन हो गईं मानो
सभी दिशाएं

मुनि संतों का
मौन हुआ वाचाल
कोयल बोली

कोयल बोली
कनुप्रिया की भरी
रीती सी झोली

सन्नाटा कुछ                                    
और हुआ गहरा
कोयल बोली

साजन मेरा
कहाँ ढूँढूँ गुलाब
गेंदा ही सही

मारो ना, करे
करेजवा  पे चोट
रसिक गेंदा

चटक पीला
गेंदा फूल साजन
महके मन

न कोई नाज़
न ही कोई नखरा
गेंदा सबका

गेंदा सा गेंदा
लदा पडा खेत में
पी रंग पीला

गेदे की माल
गेंदा बंदनवार
सर्व-स्वीकार

रंग ही रंग
मेरे चारों तरफ
होली के रंग

तन भिगोते
सराबोर करते
मन के रंग

उसके रंग
न छूटे न छुटाए
चटक रंग

गोरी के गाल
गोरा हुआ गुलाल
डोरा आँखों का

अमृत जल
सदा रहे बहता
बहाओ मत

दिन होली का
बंधी तन-मन की
गाँठ खोल दो

त्याग अहं को
होली के दिन चार
खेलो, हँस लो

सूखने न दें
नदी जो भिगोती है
हमारा मन

कुछ तरल
सरिता की भाँति है
मन भीतर

मूर्ख बुलाता
मुझे मार, आ बैल
एक अप्रैल

तर्क वक्रता
तर्क करती रिश्ते
भली मूर्खता

मैं चौंक गया
खटका दरवाज़ा
वासंती हवा

खड़ी सामने
होली तेरे द्वार पे
सामने तो आ

एक चुम्बन
बसंत के गालों पे
गुल-मुहर

झूमने लगीं
गेहूँ की बालियाँ
हवा निहाल

पकी फसल
बालियों से झांकते
रोशन दाने

झूम के आया
आँगन में बसंत
राहग गुलाल

झांझ मंजीरे
होली का हुड़दंग
मन मलंग

तीन सखियाँ
जूही चम्पा चमेली
तनहा गुलाब

घुली जो श्वास
कान्हा की मुरली में
फूटा संगीत

राधा रानी ने
मारी जो पिचकारी
रूठे कन्हाई

रंग बरसे
ज्यों पलाश दहके
दिन फागुन

गीतों में बसा
बस, प्यार ही प्यार
मीठी बयार

तन मन से
आरोह अवरोह
स्वास फागुनी

प्रसन्न मन
तोड़े रति-बंधन सब
कान्हा की वंशी

फूलों के द्वारे
मंडराते भंवरे सब
कली शरमाई

होली में झूमें
महुआ कचनार
बौरी बयार

धरे न धीर
कूक कोयलिया की
जगाती पीर

रंगों रे रंग
केसरिया सुगंध
कहाँ हो कन्त

महका बौर
चू पड़ा महुआ
रंग गुलाल

नूतन हेतु
टहनी से उतरे
बुज़ुर्ग पात

कोई न रोया
आंसुओं से टपके
निराश पत्ते

पवन संग
झर झर नाचते
गिरते पत्ते












 

श्रेष्ठ हिन्दी हाइकु - (३) मार्च माह के हाइकु

१ '३.१६
गुस्सा लहर
घाट  से टकराए
शांत हो जाए
      -कैलाश कल्ला
प्यार के पंछी
तू- तू मैं-मैं करते
एक ही हुए
     -तुकाराम खिल्लारे
कल थे चूजे
आज पंख क्या आए
उड़ ही गए
     कैलाश कल्ला
संजो रखे  हैं
इंच इंच सपने
आस मंजूषा
     -विभा रानी श्रीवास्तव

२.३.१६
खोती  जा रही
कागज़ व् स्याही
सोंधी महक
      -प्रियंका वाजपेयी
सत्य का सूर्य
छुपा नहीं सकते
झूठ का (के) घन
     -संतोष कुमार सिंह
(पिछले माह 'झूठ का घन' की जगह
'झूठ का सूर्य' प्रकाशित हो गया था
जो त्रुटि पूर्ण था|)

दादी के संग
लिपट रहे बच्चे
बेल पे फूल
     -आर के भारद्वाज
तितली बोली
लौटी हूँ खेल कर
रंगों की होली
     -संतोष कुमार सिंह
आत्म मिलन
बूंद हुई सागर
अस्तित्व खोयी (खोया?)
      -कन्हैया
सांप सच्चाई
सीढी चापलूसी   की
कैसा ये खेल
      -जितेन्द्र वर्मा

३.१.१६
क्रोधित रवि
बरसाए धरा पे
धूप के कोड़े
      -राजीव गोयल
झूमें कलियाँ
सुन भौंरा गुंजन
राग बसंत
     -कैलाश कल्ला
कल थे चूजे
आज पंख लग गए
उड़ ही चले
     -कैलाश कल्ला

४.३.१६
चाक मैके की
ससुराल के ढाँचे
ढल जाती स्त्री
      -विभा श्रीवास्तव
सीखने वाली
बात है विनम्रता
ज्ञान है भारी
      -प्रियंका वाजपेयी
सीता लंका में
हुई न विचलित
स्वयं सोना थी
     -आर के भारद्वाज
करती बातें
चिरागों से रोशनी
घंटों रातों में
     राजीव गोयल
सुबह हुई
रात भर जागी
रजनी सोयी
      -राजीव गोयल

५.३.१६
सौन्दर्य दिखे
अंतर की छबि जो
सरल सजी
       प्रियंका वाजपेयी
गृह हमारे                                                                                                                                                     नियम से विचरें
संयमी संत
      -आर के भारद्वाज
बेंच दी रूह
आवाज़ भी उसकी
देह की खातिर
       जितेन्द्र वर्मा
बहू विधवा
भटके गली गली
भिखारिन सी
     -जितेन्द्र वर्मा
ज़ख्म नहीं हैं
मेरे ज़िंदा  होने का
सबूत हैं ये
      -आर के भारद्वाज

६.३.१६
सूर्य देवता
झांकते बादलं से
ताप रहित
      -प्रियंका वाजपेयी
कभी न चुकें
इतिहास के पन्ने
सदा चौकन्ने
      -अभिषेक जैन
ऐंठने पड़े
सुर मिलाने वास्ते
वीणा के तार
     -कैलाश कल्ला

७.३.१६
भक्त कतार
दुग्ध-स्नान शिव का
नाली में दूध
       -जितेन्द्र वर्मा
लगी कंकर
सतह पर उभरा
पानी का दर्द
      -राजीव गोयल

८.३.१६
नमन नारी
सर्व गुण सम्पन्ना
ह्रदय-ग्राही
      -कन्हैया
मैं नारी मैं माँ
मैं संगिनि मैं दीक्षा
अन्नपूर्णा मैं
      -प्रियंका वाजपेयी
बिखेर गई
बोरा भर गुलाल
ढलती सांझ
       -राजीव गोयल
जल के वक्ष
दल रहीं हैं दाल
जलकुम्भियाँ
       -संतोष कुमार सिंह
स्वर्ण सी नार
चाहे हीरे का श्रंगार
कोमल ठोस
      -कैलाश कल्ला

९.३.१६
पत्ते क्या उड़े
पंछी भी उड़ गए
छाव न ठांव
      -आर के भारद्वाज
घनचक्करी
होती गृह की धुरी
बांधे घड़ी स्त्री
      -विभा श्रीवास्तव
रंग कलश
लिए सर पे खड़े
वन पलाश
      -राजीव गोयत

10.3.16
अप्रयास से
अप्राप्त होता प्राप्त
रास संयोग
      -कन्हैया
पंछी की छाया
पाँव तले क्या आई
उड़ ही गई
     -तुकाराम खिल्लारे
नाचें घटाएं
आकाश नृत्यालय
घुमड़ नाद
      -आर के भारद्वाज
 हैं कराहते
बिछुड़ कर पत्ते
कुचले जाते
      -राजीव गोयल

११.३.१६
उतर आए
नभ से कुछ तारे
जुगनू बने

उड़े जुगुनू
जा बैठे नभ पर
बन के तारे
      -राजीव गोयल

१२. ३.१६
जीत ली जंग
फतह की दुनिया
हारा क्या? प्रेम
     -प्रियंका वाजपेयी
अमा की रात                                  
हिल्र रहे दो बल्ब
म्याऊँ का स्वर
     कैलाश कल्ला
चिट्ठियाँ लाएं
समय के डाकिए
बासी यादों की
       -प्रीति दक्ष
धूप ने खेली
इंद्रधनुषी  होली
मेघों के संग
     -राजीव गोयल

१३.३.१६
शुरू हो गई
दिनभर की चक्की
भोर के साथ
        -प्रियंका वाजपेयी
पाया न नाप
बुद्धू थर्मामीटर
मन का  नाप
      -अभिषेक जैन
प्यासे हैं घट
बेबस पनघट
जल संकट
     -अभिषेक जैन
उगलें झाग
आ तट  पर लहरें
तोड़ती दम
     -राजीव गोयल

१४.३.१६
दुष्ट इरादे
कभी न हों विजयी
कैसी भी जंग
      -प्रियंका वाजपेयी
दिल में रखो
महफूस प्यार को
एक कोने में
       जितेन्द्र वर्मा
रात आते ही
ख़्वाब लगे तैरने
आँखों में मेरी
        अमन चाँदपुरी

१५ ३. १६
बना घोंसला
वक्त कतरनों से
पालता यादें
        -राजीव गोयल
क्षण कौंध में
साये लिपटे खड़े
ड्योढ़ी  पे वृक्ष
     -विभा श्रीवास्तव
दशरथ वो
साधे दसों इन्द्रियाँ
जीवन रथ
     -प्रियंका वाजपेयी
ये होली ख़ास
दरस का आभास
रचे उल्लास
     -राजीव निगम 'राज़'
होली के रंग
उड़े बादलों संग
पिया मलंग
      जितेन्द्र वर्मा
पलाश फूल
लगे हैं थरथराने
-होली आ गई !
     -तुकाराम खिल्लारे

 १६ ३. १६
सर्पीली राहें
रंग रोशन छटा
इन्द्रधनुषी
     -विभा श्रीवास्तव
रहस्यमयी
आकाश का विस्तार
मौन की गूँज
      -प्रियंका वाजपेयी
     
नींद - दो हाइकु -

नींद को मैंने
सजा  दी टूटने की
दूर भगा दी

मैं नहीं सोया
नींद लड़ने लगी
जीत भी गई
     आर के भारद्वाज
बांधे पायल
सुख और दुःख की
नाचे ज़िंदगी
     -जितेन्द्र वर्मा
चढें उतरें
पहाडी ढलानों पे
पगडंडियाँ
      -राजीव गोयल

१७. ३. १६
जो काबू खोया
नित नए तमाशे
अब चखिए
      -प्रियंका वाजपेयी
राधा अनंग
रंगी कृष्ण के रंग
गोपियाँ दंग
     --राजीव निगम 'राज़'
बड़े होकर
क्यों हो जाते हैं लोग
अक्सर छोटे ?
      -राजीव गोयल
दूध रखा था
दुल्हन उदास थी
पिया नहीं था    (दो-सुखन)
        -आर के भारद्वाज
ट्रेन का डिब्बा
हर यात्री विद्वान
मुफ्त दे ज्ञान !
       -अमन चाद्पुरी

 १८.३.१६
अग्नि परीक्षा
माता पिता घर में
पुत्र विदेश
     -कन्हैया
रंग में रंगी
बनी हूँ छाया तेरी
छूटे न कभी
     
रंग बहका
छूकर जो बिखरा
तन से तेरे
       -महिमा वर्मा
ठूँठ शाखाएं
पतझड़ में रोईं
श्रृंगार बिना
       -आर के भारद्वाज
पी रही रात
चन्दा की सुराही से
चांदनी जाम
       -राजीव गोयल

१९ .३.१६
प्रीति सागर
सींचे सूखा अंतस
पुष्पित सत्व
       -प्रियंका वाजपेयी
अतीत राख
सुलगते अब भी
याद अंगार
     -राजीव गोयल
चढता गया
लोभ का तापमान
आया न नीचे
       -अभिषेक जैन
टेसू की होली
चहकी फागुन में
होली है होली
      -राजीव निगम राज

२०.३.१६
सूखे हैं कूप
तड़पता पथिक
हंसती धूप
     -अभिषेक जैन
बांस में जान
हवा फूंक जाएं
बंसी बजाएँ
     -राजीव गोयल
अश्रु भिगोते
मन के सूखे कोने
करें पवित्र
      -प्रियंका वाजपेयी
होली के रंग
राधा कृष्ण के संग
रुक्मणि दंग
       -जितेन्द्र वर्मा
हँसे कन्हैया
बिसातिन बनके
घाघरा चोली
      -कन्हैया

२१.३.१६
मन मुटाव
झलकते तेवर
अदृश्य घाव
      -अभिषेक जैन
उगाए आम
फिर क्यों मैंने पाए
पेड़ बबूल
      -राजीव गोयल
होवें जितेन्द्र
रोकें भागता मन
खींचें कमान
       -जितेन्द्र वर्मा
मन बौराए
साजन नहीं आए
फाग न भाए
      -राजीव निगम 'राज़'  

२२.३,१६
रंग बौछार
भीग धरा बनती
इंद्र का चाप
     -विभा श्रीवास्तव
होंठ कमान
छोड़ें शब्दों के बाण
बिंधते प्राण
      -राजीव गोयल
खरीदा मैंने
तजुर्बा ज़िंदगी का
खर्च के उम्र
       -राजीव गोयल
मेरी औकात
ये तो न थी ऐ खुदा
क्या क्या दे दिया !
      -जितेन्द्र वर्मा

२३.३.१६
गाल रंगाए
रोज़ होली मनाए
पार्लर जाए
       -राजीव गोयल
जीवन नाव
कुतर के डुबोते
चूहे इच्छा के
       -कैलाश कल्ला

२४.३.१६.
कान्हा के संग
खेलीं गोपियाँ होली
कान्हा की हो ली
      -आर के भारद्वाज
कुछ सूक्ष्म है
गूढ़ बसा भीतर
बाह्य न खोज
      -प्रियंका वाजपेयी

२५.३. १६
जाने क्यूँ मन
आवाज़ देता रहा
जाने वाले को
       -प्रियंका वाजपेयी
आस बाक़ी है
तुमसे मिलने की
तिश्नगी बाक़ी

खफा मुझसे
ज़माने भर से क्या
नाराज़ी  बाक़ी
       -प्रीति दक्ष
ओलों की मार
बिछ गए खेतों में
गेहूँ और ज्वार

तनहा रात
चीख रहे सन्नाटे
तेरी है कमी
       -राजीव गोयल
झिरीं से झांके
उजाले की किरण
कनखियों से

पेड़ का तना
पत्ते न फल फूल
तना ही रहा
      आर के भारद्वाज

२६. ३. १६
गुंजन करे
सूर्य का ऊर्जादल
ओंकार शब्द
        -प्रियंका वाजपेयी
दीवारें उठें
घरों में या मनों में
बढ़ें दूरियाँ
      -राजीव गोयल
यादों के फूल
झर गए आँखों से
मिट्टी भी नम
        -तुकाराम खिल्लारे
सीप चाहती
स्वाति की एक बूंद
सागर नहीं
      -राजीव गोयल

२७.३.१६
भानु को देख
हिम में आए स्वेद
नदी में बहे
     कैलाश कल्ला

२८.३.१६
गले लगेंगे
परमात्मा की दुआ
दिल दरिया
       -कन्हैया
ऋतु सुन्दर
बाजुओं के हार सी
हसीं मंज़र
      -राजीव निगम 'राज़'
ना रूठी ही हो
न मनाए मनती
पहेली तुम
      -आर के भारद्वाज
करते खेत
मेघों से अरदास
बुझा दो प्यास
       -राजीव गोयल

२९.३. १६
बढे जितनी
घट जाती उतनी
वाह, ज़िंदगी

खुला पिजरा
हुआ आज़ाद पंछी
खोया नभ में
       -राजीव गोयल
चाहा बहुत
छू ही लूँ एक बार
तू  आकृति सी

मन में बसी
तेरी सूरत ऐसी
कलाकृति सी
      -आर के भारद्वाज

३०.३.१६
कितनी प्यारी
तेरे प्रेम की रीत
तेरी ही जीत
       -आर के भारद्वाज
काल्पनिक हैं
फिर भी टूट जाते
बुने सपने
      -कैलाश कल्ला
निगल गई
जलता हुआ गोला
रात डायन
      -राजीव गोयल
पूर्व दिशा
लिए गोद में खडी
बालक रवि
      -राजीव गोयल
चुटकी भर
गुलाल मस्तक पे
होली - आशीष
      -विभा रश्मि

३१ .३.१६
लौटी स्वदेश
सांझ बस में बैठ
सैलानी धूप
      -अभिषेक जैन
मन मन के
बोझ बने मन के
बोल उनके

गुज़रे पल
मचायें  हलचल
मन विकल
       -महिमा  वर्मा
गया भी नहीं
पहचाना भी नहीं
जाना नहीं था
      (दो सुखन हाइकु)
      -आर के भाद्वाज
आम्र मंजरी
मधु सिक्त टहनी
होठ रसीले
       -कन्हैया
बाती ने छोड़े
उजाले के नश्तर
अन्धेरा ढेर
      -राजीव गोयल

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